पढ़ाई और जीवन में क्या अंतर है? स्कूल में आप को पाठ सिखाते हैं और फिर परीक्षा लेते हैं. जीवन में पहले परीक्षा होती है और फिर सबक सिखने को मिलता है. - टॉम बोडेट

Saturday, July 18, 2009

सुप्रीम कोर्ट में हिंदी में फ़ैसला नामुमकिन।


विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया है कि सुप्रीम कोर्ट में हिंदी में फ़ैसला सुनाना किसी भी रूप में संभव नहीं है. इस तरह आयोग ने राजभाषा समिति की उस अनुशंसा को ठुकरा दिया है, जिसमें उच्चतम न्यायालय में हिंदी को अनिवार्य बनाने की सिफ़ारिश की गयी थी।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एआर लक्ष्मण की अध्यक्षता में गठित समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह जानकारी दी है। इस समिति में सात अंशकालिक सदस्य, एक पूर्णकालिक सदस्य और एक सदस्य सचिव थे. समिति ने सुप्रीम कोर्ट के 13 रिटायर्ड जजों व आठ वरिष्ठ अधिवक्ताओं, तीन न्यायालय अधिवक्ता संगमों और भारतीय विधिज्ञ संगम के अध्यक्ष फ़ाली एम नरीमन को पत्र भेज कर उनकी राय मांगी थी कि क्या हिंदी में फ़ैसला सुनाना संभव है। रिटायर्ड जजों में न्यायमूर्ति वाइवी चंद्रचूड़, वीआर कृष्ण अय्यर व वीएस मलिमथ आदि प्रमुख हैं।
इन सभी लोगों ने अपने जवाब में कहा कि सुप्रीम कोर्ट में हिंदी को अनिवार्य बनाया जाना व्यावहारिक, उचित और न्यायसंगत नहीं है। न्यायमूर्ति वाइवी चंद्रचूड़ ने तो यहां तक कहा : न तो उच्चतम न्यायालय से और न ही उच्च न्यायालयों से हिंदी में अपने निर्णय देने के लिए कहा जाना चाहिए।  इन न्यायालयों के न्यायाधीश संपूर्ण भारत से लिये जाते हैं और वे हिंदी से सुपरिचित नहीं होते।  अंग्रेजी अब संसार की भाषा के रूप में महत्व अर्जित कर रही है। हमें नयी पीढ़ी को अंग्रेजी भाषा के लाभ से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।  न्यायमूर्ति वीआर कृष्ण कुमार ने कहा : हिंदी की अंधभक्ति की कोई राष्ट्रीय उपयोगिता नहीं है।  मैं व्यक्तिगत रूप से हिंदी का समर्थन करता हूं, पर मैं विवशतावश हिंदी का पूर्ण रूप से विरोधी हूं।  

न्यायमूर्ति अहमदी ने कहा : मेरे विचार से जब तक हिंदी का पूरे देश में प्रचार नहीं हो जाता और शिक्षा को उस भाषा में नहीं दिया जाता, यह उचित नहीं हो सकता कि उच्चतम न्यायालयों और उच्च न्यायालयों में हिंदी में कार्य करने के लिए कहा जाये। वरिष्ठ अधिवक्ता केके वेणुगोपाल की नजर में यह प्रस्ताव देश की एकता को विभाजित करनेवाला होगा।

1 टिप्पणियाँ:

SAVE INDIA FROM KEJRIWAL said...

This judgment is shame for any country. Hindi is so powerful language that even US has accepted that in future without knowing the Hindi no body can have relationship with India. I think member of this commission are living in other world.How could an instituion deny to deliver the justice ,governance and education in mother tongue ? Is there any example in world where these basic needs provided in foreign language? Members of Parliament if have any pride must resign from their seat and go back to people to get mandate against this verdicts. It is shame for any citizen.