पढ़ाई और जीवन में क्या अंतर है? स्कूल में आप को पाठ सिखाते हैं और फिर परीक्षा लेते हैं. जीवन में पहले परीक्षा होती है और फिर सबक सिखने को मिलता है. - टॉम बोडेट

Tuesday, March 23, 2010

देर भी है अंधेर भी हैं।

आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट के जस्टिस वीवी राव ने न्यायपालिका में ई-गवर्नेस को लेकर पढ़े गए अपने पर्चे में जब यह धमाका किया कि देश के सभी छोटे-बड़े न्यायालयों में लगभग 3 करोड़ 12 लाख 8 हज़ार मामले लंबित पड़े हैं, तो सबके कान खड़े होना लाजिमी था।
राव ने यह आशंका भी ज़ाहिर की है कि जजों के मौजूदा संख्याबल के हिसाब से इन मामलों को निबटाने में भारतीय न्याय व्यवस्था को 320 वर्ष लग जाएंगे! इधर तीन माह के भीतर लंबित मामलों की सूची में 14 लाख प्रकरणों का इजाफ़ा हो गया है।
देश के जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में 2.72 करोड़ से अधिक, उच्च न्यायालयों में 40 लाख से अधिक तथा सर्वोच्च न्यायालय में 55 हज़ार से ज्यादा मामले लटके पड़े हैं। 2009 में भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस केजी बालाकृष्णन ने कहा था कि लंबित मामलों के शीघ्र निबटारे के लिए न्यायालयों के पास ‘कोई जादू की छड़ी’ नहीं है।  बहरहाल, न्याय व्यवस्था की कछुआ चाल, अदालतों में फाइलों के लगे ढेर, कई पीढ़ियों तक चलने वाले मुकदमे आख़िर किसे न्याय दे सकते हैं? न्यायशास्त्र का एक मौलिक सिद्धांत है कि जो फ़ैसला सुनाया गया है, उससे न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए। लेकिन स्थिति क्या है? दिल्ली हाईकोर्ट ने माना है कि 2007-08 के दौरान उसके सामने 3,32,141 प्रकरण आए,जिनमें से हर प्रकरण की सुनवाई का समय महज 4 मिनट 55 सेकंड बैठता है।
इतना ही नहीं, राजकोष पर हर मिनट की सुनवाई का बोझ 6,327 रुपए पड़ा। इनमें 600 से ज्यादा ऐसे मामले हैं, जो 20 वर्ष से अधिक पुराने हैं। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तथा राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में तो सभी मामले निबटाते-निबटाते पूरी सदी लग सकती है! ऐसे में अपने साथ न्याय होते देखने के लिए कितने लोग बच पाएंगे, इसका अंदाज़ लगाया जा सकता है।

दिल्ली हाईकोर्ट की पिछली सालाना रपट कहती है कि यूपी का इलाहाबाद हाईकोर्ट अगर साल के 365 दिन रोजाना 8 घंटे काम करे, तो भी उसे अपने यहां लंबित 9,49,437 मामले निबटाने में 27 सालों से अधिक समय लग जाएगा। वह भी तब,जब इस बीच उसके सामने कोई नया मामला पेश न किया जाए।

इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ वकील आईबी सिंह कहते हैं, ‘क़ानून मंत्रालय समय-समय पर इस संकट से जूझने के लिए ‘न्याय आपके द्वार’ जैसी विभिन्न योजनाओं और मैकेनिÊम की घोषणा करता रहता है, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही है।’ ऐसे में कल्पना कीजिए सन् 1984 से न्याय की बाट जोह रहे उन सिख परिवारों की, जिनके अपने निविदाएं जला दिए गए थे।

सोचिए भोपाल गैस कांड के पीड़ितों की दुर्दशा के बारे में, जिनकी पीढ़ियां शारीरिक और मानसिक रूप से विकृत कर दी गई हैं। ये लोग उचित मुआवजे के लिए बीते 26 वर्षो से न्याय की देहरी पर टकटकी लगाए बैठे हैं। 28 फरवरी, 2002 को शुरू हुए गुजरात दंगों की सुनवाई आज आठ बरसों बाद क़ानूनी दांव-पेंच में ही उलझी हुई है। ऐसे कई उदाहरण हैं।
ख़तरनाक से ख़तरनाक आतंकवादियों की सुनवाई भी हमारे देश में अनंतकाल तक चलती रहती है। आतंकी अहमद उमर सईद शेख़ अपने आक़ा अजहर मसूद के साथ पांच साल तक भारत की न्यायिक हिरासत में था। 26 नवंबर 2008 को हुए मुंबई आतंकी हमले में गिऱफ्तार आतंकी अजमल कसाब की सुनवाई अभी चल ही रही है।
अमेरिकी न्यायाधीश वेंडेल होम्स ने कहा था, ‘देरी के ज़रिए न्याय देने से इंकार करना क़ानून का सबसे बड़ा मज़ाक है।’ लेकिन भारत में यह सिर्फ़ क़ानून के मज़ाक तक ही सीमित नहीं है, बल्कि न्याय में देरी के ज़रिए देश की समूची न्यायप्रणाली का ही गला घोंटा जा रहा है।
इसका नतीजा यह हुआ है कि लोगों का क़ानून-व्यवस्था से विश्वास उठ रहा है, वे अपने मामले ख़ुद निबटाने लगे हैं और विभिन्न आपराधिक सिंडीकेटों का उदय हुआ है। एशियन लीगल रिसोर्स सेंटर (एएलआरसी) की भी यही राय है- ‘विलंबित न्याय प्रदान करने वाली प्रणाली भारत में क़ानून के राज को खत्म कर रही है।’

अटके मामलों वाले अव्वल प्रदेश

हाईकोर्टो में लंबित मामलों वाले शीर्ष पांच प्रदेश ये हैं- उत्तरप्रदेश 9,35,425; तमिलनाडु 4,62,009; महाराष्ट्र 3,39,921; पश्चिम बंगाल 3,06,253; पंजाब एवं हरियाणा 2,47,115 मामले (31/03/09 तक के आंकड़े, स्रोत: सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया )।जिला अदालतों में लंबित मामलों वाले शीर्ष पांच प्रदेश ये हैं- उत्तरप्रदेश 52,36,738; महाराष्ट्र 41,33,272; पश्चिम बंगाल 24,62,430; गुजरात 22,42,686; बिहार 14,22,580 (31/03/09 तक के आंकड़े, स्रोत: सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया)।

दस लाख पर साढ़े दस

आज अगर हम दूसरे देशों की तुलना में अपनी आबादी को न्याय देने के लिए उपलब्ध जजों की तुलना करें, तो बड़ी दुखद तस्वीर उभरती है। प्रति 10 लाख आबादी पर अमेरिका में जहां 135 जज उपलब्ध हैं, वहीं इतनी ही आबादी के लिए भारत में मात्र 10.5 जज ही हैं।

कनाडा में यह संख्या 75.2, ब्रिटेन में 50.8, ऑस्ट्रेलिया में 57.7 तथा हंगरी जैसे देश में 70 है। अगर भारत में लंबित कुल मुकदमों को जजों की संख्या से बांटा जाए, तो हर जज पर 2147 मुकदमे बैठते हैं। इसमें एक दिलचस्प तथ्य यह है कि बढ़ती शिक्षा और जागरूकता के चलते अदालतों में नए मुकदमें दर्ज होने की रफ़्तार और संख्या दोनों बढ़ी है।



केरल में जहां शिक्षा दर अधिक है, वहां हर साल प्रति एक हज़ार की आबादी पर 28 केस अधिक दर्ज हुए हैं, जबकि कम शिक्षा दर वाले राज्य बिहार में यह संख्या महज 3 है। इसका अर्थ यह हुआ कि जैसे-जैसे शिक्षा की दर बढ़ेगी मुकदमों में और इजाफा होगा। तब सोचिए कि हर 10 लाख आबादी को भारत में न्याय देने के लिए कितने जज मिल सकेंगे?



तिस पर भ्रष्ट ज्यादा ....
एक सवाल यह भी उठता है कि क्या जजों की संख्या बढ़ाने मात्र से लोगों को न्याय मिलना शुरू हो जाएगा? लंबित मामले आनन-फानन निबटा दिए जाएंगे? इसका जवाब हमें भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एसपी भरूचा की इस टिप्पणी में खोजना चाहिए, जो उन्होंने अपने कार्यकाल में ही दी थी, ‘बीस प्रतिशत जजों का चरित्र संदेहास्पद है।’

उनसे पहले भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एमएन वेंकटचलैया ने कहा था, ‘मैं ऐसे 90 जजों को जानता हूँ, जो दारू और दावत के लिए वकीलों के घर शाम को जा धमकते हैं। मैं ऐसे जजों को भी जानता हूँ, जो लालच और अवैध लाभ के लिए विदेशी दूतावासों के दरवाज़ों पर दस्तक देते घूमते हैं।’

देश के एक और सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा (1997-98) ने कहा था, ‘निश्चित रूप से यहां भ्रष्टाचार हर स्तर पर फैला हुआ है। अदालत और अदालती प्रणाली से जुड़े लोग भी तो समाज से ही आते हैं। कोई जज ‘सफल भ्रष्ट’ तब तक नहीं हो सकता, जब तक उसके भ्रष्टाचार को वकीलों का सक्रिय सहयोग न हो।’

पूर्व मुख्य न्यायाधीश वायके सभरवाल (2005-07) ने झूठी एवं सारहीन मुकदमेबाजी को निरुत्साहित करने पर जोर दिया था। इंडियन ज्यूडिशियरी के पितामह कहे जाने वाले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश वीआर कृष्णअय्यर की राय में न्यायपालिका में पारदर्शिता एवं जवाबदेही लाने का एक ही उपाय है..और वह है जजों की नियुक्ति, उनके प्रदर्शन पर नज़र रखने तथा उनके खिलाफ़ कार्रवाई करने के लिए एक अलग आयोग गठित करना।
सरकारी बोझ के मारे

हमारी यह धारणा ग़लत है कि न्यायालयों में चल रहे सबसे अधिक मामले आपराधिक हैं। वास्तविकता यह है कि 60 फ़ीसदी लंबित मामले सरकारी हैं। कई मामलों में तो वादी-प्रतिवादी राज्य या केंद्र सरकार ही हैं। सबसे ज्यादा लंबित मामले कर विभाग, गृह, वित्त, उद्योग, खदान-पेट्रोलियम, वन, पीएचईडी, शिक्षा, पंचायती राज, परिवहन और राजस्व विभाग सहित कुल 19 विभागों के हैं। सरकार के खिलाफ़ सबसे ज्यादा मामले टैक्स से जुड़े हैं। इसमें पहल करते हुए महाराष्ट्र सरकार के क़ानून मंत्रालय ने ऐसे लंबित मामले वापस लेने के लिए एडवोकेट जनरल रवि कदम की अध्यक्षता में एक समिति गठित करने का निर्णय लिया है।

महाराष्ट्र के क़ानून एवं न्याय राज्यमंत्री राधाकृष्ण विखे पाटिल ने इसकी पुष्टि करते हुए कहा कि ऐसे लगभग 95 प्रतिशत मामले राज्य सरकार से जुड़े हैं। पाटिल के मुताबिक़, अगर इन मामलों को प्रशासनिक स्तर पर निबटा लिया जाता है,तो समूचे महाराष्ट्र के लगभग 30 प्रतिशत लंबित मामले अपने आप छंट जाएंगे।

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