पढ़ाई और जीवन में क्या अंतर है? स्कूल में आप को पाठ सिखाते हैं और फिर परीक्षा लेते हैं. जीवन में पहले परीक्षा होती है और फिर सबक सिखने को मिलता है. - टॉम बोडेट

Wednesday, July 21, 2010

साध्वी, अन्य के ख़िलाफ़ फिर मकोका

बाम्बे उच्च न्यायालय ने सोमवार को सितंबर 2008 के मालेगाँव धमाके के मामले में 11 अभियुक्तों पर महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण कानून (मकोका) लगाए जाने को उचित ठहराया है. ग़ौरतलब है कि इनमें साध्वी प्रज्ञा ठाकुर भी शामिल हैं.

पिछले साल 31 जुलाई को एक निचली अदालत ने इन लोगों पर लगाए गए मकोका को हटाने को आदेश दिया था. सरकार ने इस फ़ैसले को बाम्बे उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी जिस पर ये फ़ैसला आया है.

दो साल पहले हुए मालेगाँव धमाके में कम से कम छह लोग मारे गए थे जबकि कई घायल हुए थे. महाराष्ट्र की आतंकवाद निरोधक शाखा (एटीएस) ने इस फ़ैसले का स्वागत किया है.
साध्वी प्रज्ञा के ख़िलाफ़ भी

साध्वी प्रज्ञा के वकील गणेश सोवानी ने इस फ़ैसले पर नाराज़गी जताई और कहा, "एक बार आदेश की कॉपी देख लें, उसके बाद निर्णय लेंगे कि इसके खिलाफ़ उच्चतम न्यायालय जाया जाए या नहीं."
उन्होंने कहा, "दरअसल निचली अदालत ने तीन अभियुक्तों की ज़मानत की अर्ज़ी पिछले साल ख़ारिज कर दी थी. लेकिन उन्होंने अर्ज़ी ख़ारिज करते हुए ये टिप्पणी की थी कि जिस तरह मकोका लगाया गया वो ग़लत था और सभी 11 लोगों को मकोका से बरी कर दिया था."

उधर राज्य सरकार के वकील का कहना था कि जिस तरह मकोका हटाया गया था वो ग़लत था औऱ निचली अदालत के पास ये इख्तियार नहीं था.

गणेंश सोवानी ने माना कि इस आदेश के बाद साध्वी प्रज्ञा, रमेश उपाध्याय, समीर कुलकर्णी, कर्नल पुरोहित और अन्य अभियुक्तों की मुश्किलों में इज़ाफ़ा हो गया है.

मकोका के तहत पुलिस को बहुत व्यापक अधिकार दिए गए हैं.

वरिष्ठ वकील अब्बास काज़मी बताते हैं, "इसके तहत ज़मानत मिलना मुश्किल हो जाता है. चार्जशीट और रिमांड का समय बढ़ जाता है. आम क़ानून के तहत अगर कोई व्यक्ति किसी पुलिस अफ़सर के सामने कोई बयान देता है तो वो न्यायालय में सबूत नहीं माना जाता. लेकिन मकोका के तहत अगर किसी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के सामने कोई व्यक्ति अपना जुर्म कुबूल करता है तो उसे मान्य करार दिया जाता है."

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