पढ़ाई और जीवन में क्या अंतर है? स्कूल में आप को पाठ सिखाते हैं और फिर परीक्षा लेते हैं. जीवन में पहले परीक्षा होती है और फिर सबक सिखने को मिलता है. - टॉम बोडेट

Tuesday, August 10, 2010

17 साल में कोर्ट तक नहीं पहुंची एफआईआर

पुलिस क्या चीज होती है, यह कोई रामलाल से पूछे। एक-दो नहीं, 17 बरस से वह न्याय के लिए भटक रहा है। पुलिस है कि उसकी राह में चीन की दीवार बनी खड़ी है। दलित समुदाय के रामलाल का केस आज तक सत्र न्यायालय को इसलिए सुपुर्द नहीं हो सका क्योंकि पुलिस एफआईआर की मूल प्रति ही दाखिल नहीं कर रही है। जमानत कराकर खुलेआम घूम रहे आरोपियों को वह जब-जब देखता है, तब-तब उसका भरोसा भारतीय कानून और न्याय व्यवस्था से उठ जाता है। बात जून 1993 की है जब ननकू, चेतराम, जय सिंह और प्रताप ने रामलाल को आम तोड़ने के विवाद में पीट दिया। उसने एससी एक्ट सहित अन्य धाराओं के तहत थाना क्योलडिया में मारपीट की रिपोर्ट दर्ज कराई। उसे पुलिस पर तो नहीं, न्यायालय पर भरोसा था।
पुलिस ने आरोपियों को पकड़ा लेकिन सभी जमानत कराकर बाहर आ गए। पुलिस ने केस दाखिल करते-करते साल भर लगा दिया। केस दाखिल हुआ तो रामलाल की उम्मीदें भी जाग उठीं। वह बडे़ उत्साह के साथ तय तारीख पर मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित हुआ लेकिन पुलिस ने तो यहां अपना खेल कर दिया। पत्रावली में एक ऐसी खामी छोड़ दी, जिसके बिना उसका केस शुरू ही नहीं होना था। भ्रष्ट पुलिस तंत्र ने 17 साल से एफआईआर की मूल कॉपी पत्रावली में लगाने के लिए उपलब्ध नहीं कराई है। हालांकि मजिस्ट्रेट ने इस बारे में दर्जनों पत्र थाने से लेकर पुलिस के हर अफसर तक भेजे हैं।
असल एफआईआर की कॉपी दाखिल न कर पाने के कारण पिछले 17 वर्षो से दलित उत्पीड़न के चार आरोपी तारीख पर तारीख ले रहे हैं। उनका मुकदमा सुनवाई के लिए विशेष सत्र न्यायालय नहीं भेजा जा सका। पुलिस की कारगुजारियों का परिणाम है कि रामलाल का मुकदमा आज भी प्रथम अपर मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के न्यायालय पीलीभीत में ही लंबित है। फिर से एक सितंबर की तिथि मूल एफआईआर उपलब्ध कराने के लिए तय की गई है। रामलाल को नहीं लगता कि पुलिस उसे न्याय दिलाने की राह इतनी आसानी से आसान करने वाली है।

1 टिप्पणियाँ:

दिनेशराय द्विवेदी said...

इस मुकदमे को तो हाईकोर्ट या सुप्रीमकोर्ट ही तय करे। प्रथम सूचना रिपोर्ट तो 24 घंटों में अदालत पहुँच जाती है।