पढ़ाई और जीवन में क्या अंतर है? स्कूल में आप को पाठ सिखाते हैं और फिर परीक्षा लेते हैं. जीवन में पहले परीक्षा होती है और फिर सबक सिखने को मिलता है. - टॉम बोडेट

Saturday, February 27, 2010

कोर्ट की कर्मचारी ने जज पर फेंकी चप्पल

आंध्र प्रदेश में गुरुवार को एक महिला कर्मचारी ने अदालत कक्ष में ही एक न्यायाधीश पर चप्पल फेंक दी। महिला ने उक्त न्यायाधीश पर अपने को अपमानित करने का आरोप लगाया है। पुलिस ने बताया कि परिवार अदालत में स्टेनोग्राफर के रूप में कार्यरत राधा रानी को चतुर्थ अतिरिक्त जिला न्यायाधीश षणमुगम पर चप्पल फेंकने के लिए गिरफ्तार किया गया है।
 
राधा ने बताया कि पिछले सात महीनों से मानसिक रुप से परेशान और अपमानित होते रहने के कारण उसने न्यायाधीश पर चप्पल फेंकी थी। यह घटना गुरुवार को उस समय हुई जब न्यायाधीश ने इस बात के लिए महिला को फटकार लगाई कि वह चप्पल को बाहर क्यों नहीं रख कर आई और उसे चप्पल को अपने सिर पर रख लेना चाहिए। इसके बाद राधा रानी ने भरी अदालत में न्यायाधीश पर चप्पल फेंक दी।

न्यायाधीश ने इस घटना के बारे में कुछ भी कहने से इंकार कर दिया।

कसाब का आरोप, मेरे खाने में दवा मिलाते हैं

पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल आमिर कसाब ने विशेष अदालत से शिकायत की है कि जेल के अफसर उसे दवा मिला खाना दे रहे हैं, जिससे उसे चक्कर आते हैं। कसाब के इस आरोप पर जज एम. एल. तहलियानी ने उसे फटकार लगाते हुए कहा कि वह बार-बार इस तरह के बेबुनियाद आरोप न लगाए। कसाब ने कुछ दिन पहले भी ऐसा आरोप लगाया था।

कसाब के वकील के.पी. पवार ने भी पुष्टि की कि अभियुक्त ने ऐसी शिकायत की है, लेकिन अदालत ने उसके आरोपों को खारिज कर दिया। इससे पहले कसाब ने आरोप लगाया था कि अधिकारी उसे दवा मिला खाना दे रहे हैं, जिसके बाद जज ने कसाब को दिए जाने वाले खाने की जांच के लिए फरेंसिक लैबरेटरी में भेजा था। जांच में कसाब के दावे सही साबित नहीं हुए थे।

कसाब ने यह भी शिकायत की थी कि जेल के गार्ड टाइम पास करने के लिए उसे गाना गाने को कहते हैं लेकिन वह ऐसा नहीं करता। अभियुक्त ने यह भी आरोप लगाया कि गार्ड ने उससे यह भी पूछा कि क्या उसकी कोई गर्लफ्रेंड है, जिसके जवाब में उसने कहा कि मैंने लड़कों के स्कूल में पढ़ाई की है।

एक अन्य घटना में आरटीआई से मिली जानकारी से पता चला है कि महाराष्ट्र सरकार ने कसाब को किसी भी हमले से बचाने के लिए ऑर्थर रोड सेंट्रल जेल में पांच करोड़ 24 लाख रुपये की लागत से हाई सिक्युरिटी वाले सेल का निर्माण किया है। सेल के बाहरी हिस्से को गोली और बम से सुरक्षित करने के लिए स्टील लगाई गई है। उसे सेल से सीधे कोर्ट तक ले जाने के लिए एक सुरंग का भी निर्माण किया गया है।

ग्रीष्मावकाश में एकल न्यायाधीश के आदेश के विरुद्ध स्पेशल अपील पोषणीय

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन जजों की पूर्ण पीठ ने यह व्यवस्था दी है कि ग्रीष्मावकाश के दौरान एकल न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश के विरुद्ध दो जजों के समक्ष स्पेशल अपील दाखिल की जा सकती है। यह फैसला पूर्ण पीठ के समक्ष संदर्भित किया गया था। यह फैसला न्यायमूर्ति अशोक भूषण, न्यायमूर्ति अरुण टण्डन व न्यायमूर्ति संजय मिश्रा की पूर्ण पीठ ने कुलदीप कुमार त्रिपाठी की स्पेशल अपील पर दिया है।

कहा गया कि अभी तक ग्रीष्मावकाश में एकल न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश के विरुद्ध दो जजों के समक्ष स्पेशल अपील दायर करने पर मतैक्य नहीं था। एक न्यायिक व्यवस्था के अनुसार ग्रीष्मावकाश में एकल जज के पास दो जज की अधिकारिता रहती है। दूसरी न्यायिक व्यवस्था के अनुसार एकल न्यायाधीश के आदेश के विरुद्ध दो जजों के समक्ष ही स्पेशल अपील दाखिल हो सकती है। मुख्य स्थायी अधिवक्ता एमसी चतुर्वेदी ने पूर्णपीठ के समक्ष तर्क दिया कि हाईकोर्ट रूल्स के अनुसार ग्रीष्मावकाश में एकल न्यायाधीश एकल जज की अधिकारिता के तहत ही कार्य करते हैं। ऐसे में उनके हर आदेश को दो जजों के समक्ष स्पेशल अपील में चुनौती दी जा सकती है।

Thursday, February 25, 2010

वीआरएस आवेदन वापस लिया जा सकता है - मुंबई हाईकोर्ट

मुंबई हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (वीआरएस) का आवेदन नियोक्ता की स्वीकृति से पहले वापस लिया जा सकता है। अदालत ने यह फैसला नागपुर स्थित यूको बैंक में कार्यरत मधुसूदन त्रिवेदी की याचिका पर सुनाया।
न्यायमूर्ति एस.ए.बोबदे और वसंती नाइक की खंडपीठ ने कहा कि हालांकि वीआरएस नियमों में यह व्यवस्था नहीं है,लेकिन आवेदन वापस लिया जा सकता है। त्रिवेदी ने बैंक की ओर से नवंबर 2000 में शुरू की योजना के तहत वीआरएस लेने के लिए आवेदन किया था। उन्होंने एक जनवरी 2001 को इसके लिए आवेदन किया।
याचिका में उन्होंने कहा कि आवेदन के समय उन्हें योजना के सभी प्रावधानों की जानकारी नहीं थी। बाद में जानकारी होने पर उन्होंने अपना आवेदन वापस लेना चाहा, लेकिन बैंक ने यह कह कर मना कर दिया कि नियमों के मुताबिक आवेदन वापस नहीं लिया जा सकता। इस फैसले के खिलाफ त्रिवेदी ने मुंबई हाईकोर्ट में याचिका दायर की।
हाईकोर्ट ने पाया कि त्रिवेदी के आवेदन वापस लेने की मांग तक बैंक ने उसके आवेदन को स्वीकार नहीं किया था।

Wednesday, February 24, 2010

पारिवारिक अदालतों में एटॉर्नी शिरकत नहीं कर सकते-मुम्बई हाई कोर्ट

मुम्बई हाई कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में कहा है कि पति-पत्नी के एटॉर्नी वैवाहिक विवाद के मामले में किसी पारिवारिक अदालत में उनकी ओर से न तो शामिल हो सकते हैं और न ही जिरह कर सकते हैं। न्यायाधीश रौशन दलवी ने फैसला सुनाते हुए कहा कि यदि एटॉर्नी को किसी पार्टी की ओर से शामिल होने की इजाजत दी गई तो अदालत अयोग्य और अनघिकृत लोगों की ओर से संचालित होने लगेगी। नीलम शेवाले की ओर से दायर याचिका पर न्यायालय ने पिछले सप्ताह यह फैसला सुनाया है। याचिका में कहा गया था कि उनकी ओर से उनके एटॉर्नी को पेश होने की इजाजत दी जा सकती है, क्योंकि वह बीमार हैं, अंग्रेजी नहीं जानती हैं, पति की ओर से मानसिक रूप से प्रताडित की गई हैं और अदालती कार्यवाही के दौरान खड़ी नहीं रह सकतीं।

किरायेदार पर बिना वजह मामले को लंबा खींचने के लिये एक लाख का जुर्माना

दिल्ली उच्च न्यायालय ने मकान मालिक के खिलाफ मुकदमे को 20 वर्षों से अधिक समय तक खींच कर उसे उसकी संपत्ति से वंचित रखने के दोषी किरायेदार पर एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया है ।
मामले की सुनवाई कर रहे न्यायाधीश एस. एन. धींगरा ने बताया कि किरायेदार तरह. तरह के बहाने बनाकर परिसर खाली करने के आदेश का उल्लंघन करता रहा जिससे पता चलता है कि कोई व्यक्ति कानून के साथ कैसे सफलतापूर्वक खिलवाड कर सकता है और संपत्ति के मालिक को लंबे समय तक उसके फायदों से वंचित रख सकता है1 यह मामला दक्षिणी दिल्ली के कोटला मुबारकपुर में 500 वर्ग गज संपत्ति से संबंधित है ।
न्यायमूर्ति धींगरा ने कहा कि यह याचिका निचली अदालत.. उच्च न्यायालय या कार्यकारी अदालत और उच्चतम न्यायालय के सभी फैसलों को चुनौती देकर मामले को और अधिक लटकाने की कोशिश थी। न्यायालय ने उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय समेत सभी न्यायालयों में मुकदमा हार चुके किरायेदार एस. एस. गुप्ता की याचिका खारिज कर दी और उसे मकान मालिक हिम्मत सिंह के परिसर को खाली करने के निर्देश दिये हैं। गौरतलब है कि हिम्मत सिंह की वर्ष 1983 में मौत हो चुकी है ।
न्यायमूर्ति धींगरा ने इस याचिका को फर्जी और तथ्यों से परे बताते हुये इसे खारिज कर दिया तथा मामले को लंबा खींचने के लिये याचिकाकर्ता पर एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया। उन्होंने निर्देश दिया है कि अगर किरायेदार यह जुर्माना अदा नहीं कर पाता है तो न्यायालय अपनी तरफ से यह रकम मकान मालिक को देगा !
संपत्ति के मालिक के वकील मंजीत सिंह अहलूवालिया ने बताया कि किरायेदार की 1983 के डिक्री आदेश को चुनौती देने वाली याचिका उच्चतम न्यायालय समेत सभी न्यायालयों से खारिज कर दी गयी थी। इसके बावजूद उसने मामले को लटकाने के लिये विभिन्न अदालतों में याचिका दायर कर रखी थी।

Tuesday, February 23, 2010

ब्लैंक चेक अचूक हथियार नहीं है बैंकों का - बॉम्बे हाई कोर्ट

लोन लेने वालों से बैंक अक्सर पोस्ट डेटेड ब्लैंक चेक मांगते हैं। यह चेक भुगतान की सिक्युरिटी के तौर पर लिया जाता है। बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा है कि अगर ऐसा चेक बाउंस हो जाए तो लोन लेने वाले पर निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट (एनआई) ऐक्ट के तहत क्रिमिनल केस नहीं चलाया जा सकता।

पिछले हफ्ते यह फैसला अहमदनगर जिले के रामकृष्णा अर्बन कोऑपरेटिव क्रेडिट सोसाइटी की याचिका पर सुनाया गया। सोसाइटी ने राजेंद्र वर्मा नाम के शख्स को साल 2000 में 2 लाख रुपये का लोन दिया था। वर्मा ने भुगतान की सिक्युरिटी के नाम पर 10 ब्लैंक पोस्ट डेटेड चेक जारी किए। इनमें से जनवरी 2008 का एक चेक बाउंस हो गया। इसके बाद सोसाइटी ने वर्मा के खिलाफ शिकायत की। मैजिस्ट्रेट कोर्ट ने कहा कि वर्मा एनआई ऐक्ट के तहत दोषी नहीं हैं और उन्हें बरी कर दिया गया।

सोसाइटी ने हाई कोर्ट की औरंगाबाद बेंच में अर्जी दाखिल की और सेशन कोर्ट में अपील दाखिल करने की इजाजत मांगी। जज ने अर्जी खारिज कर दी। हाई कोर्ट ने ध्यान दिलाया कि एनआई ऐक्ट का मकसद चेक को वित्तीय माध्यम के तौर पर विश्वसनीयता दिलाना है, इसका मकसद लोन की जल्द और असरदार रिकवरी नहीं है। कानून बनाने वालों ने ऐसी कल्पना नहीं की होगी कि उधार देने वाले लोग या बैंक लोन देते या मंजूर करते वक्त सिक्युरिटी के रूप में ब्लैंक या पोस्ट डेटेड चेक लेंगे। फिर एनआई एक्ट के सेक्शन 138 के तहत मुकदमा चलाने और सजा दिलाने की धमकी देकर लोन का भुगतान मांगेंगे।

पर्दा इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं-सर्वोच्च न्यायालय

सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग की फोटो मतदाता सूची से बुर्का पहनने वाली मुस्लिम महिलाओं का चित्र हटाए जाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया है। अदालत ने सोमवार को एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि यदि किसी को यह छूट प्रदान की गई तो लाखों लोग आवेदन लेकर खड़े हो जाएंगे, जिससे बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी। इससे पहले आयोग ने अपने हलफनामे में कहा है कि पर्दे के रिवाज की न तो कोई कानूनी हैसियत है और न ही इसे इस्लाम का अभिन्न हिस्सा माना जा सकता है। आयोग की वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने मद्रास हाईकोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा, हाईकोर्ट कह चुका है कि पर्दा इस्लाम धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं है। उनकी इस दलील पर याचिकाकर्ता के वकील ने कहा, दो-तीन किताबों के निष्कर्ष पर यह बात नहीं कही जा सकती। मुख्य न्यायाधीश की पीठ ने कहा, वे इस मुद्दे पर विचार नहीं कर रहे हैं कि पर्दा इस्लाम का अभिन्न हिस्सा है कि नहीं। कोर्ट ने मामले की सुनवाई दो सप्ताह के लिए टालते हुए याचिकाकर्ता से कहा कि वह स्वयं सोचकर बतायें कि ऐसा कौन सा आदेश पारित किया जा सकता है जो हर तरह से उचित हो। अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल मोहन जैन का कहना था कि याचिका में रखी मांग नहीं मानी जा सकती है। आयोग ने कहा, फोटो के दुरुपयोग को ध्यान में रखा गया है इसलिए सीडी में फोटो नहीं रखी जाती। कागजी प्रति सिर्फ चुनाव कराने वाले अधिकारियों व राजनैतिक दलों के एजेंटों को दी जाती हैं। याचिकाकर्ता का कहना था कि अफसरों को फोटो वाली मतदाता सूची देने पर उन्हें आपत्ति नहीं है लेकिन दलों के एजेंटों को फोटो वाली सूची न दी जाये क्योंकि उनके हाथ में आने से वे उसकी अनगिनत प्रतियां करवा सकते हैं और उससे मुस्लिम धर्म में आस्था रखने वाली पर्दानशीन महिलाओं को ऐतराज हो सकता ह

बलात्कार और हत्या के आरोपी को फांसी की सजा

किशोरी की बलात्कार के बाद हत्या के आरोपी युवक को मध्यप्रदेश के खंडवा के जिला न्यायालय ने मंगलवार को फांसी की सजा सुनाई।

अपर सत्र न्यायाधीश यू सी जैन ने एक साल पुराने इस प्रकरण में सुनवाई पूरी कर 22 वर्षीय राहुल राजपूत को दोषी करार देते हुए उसे मृत्युदंड की सजा सुनाई। न्यायाधीश ने अपने महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि राहुल ने निर्ममता पूर्वक किशोरी की हत्या की है और यह अपराध क्षमा योग्य नहीं है।

अभियोजन के अनुसार 20 फरवरी 2009 को खंडवा नगर के समीप भोजाखेड़ी गांव में एक खेत के समीप कुएं पर 18 वर्षीय किशोरी कपडे धोने के लिए गई थी। इसी दौरान आरोपी ने उसके साथ बलात्कार किया और बात खुलने के डर से उसकी पत्थर से कुचलकर हत्या कर दी थी।

माया की मूर्तियां लगाना चुनाव चिह्न संहिता का उल्लंघन है या नहीं, चुनाव आयोग तीन महीने के अंदर फैसला करें- सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से बसपा के चुनाव चिह्न (हाथी) का दुरूपयोग किए जाने संबंधी शिकायतों पर तीन महीने के अंदर फैसला करने को कहा है।
कोर्ट ने उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक स्थलों पर मुख्यमंत्री मायावती व हाथी की मूर्तियां लगाए जाने का विरोध करने वाली एक याचिका पर सुनवाई के दौरान आयोग से यह अनुरोध किया। मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन, न्यायमूर्ति दीपक वर्मा व न्यायमूर्ति बीएस चौहान की पीठ ने वकील रविकांत की याचिका पर सुनवाई तीन महीने के लिए टाल दी।
इससे पहले रविकांत ने कहा कि केंद्र सरकार और चुनाव आयोग ने अभी तक याचिका पर अपना जवाब दाखिल नहीं किया है। चुनाव आयोग की वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने कहा कि आयोग को ऐसी ही शिकायतों के कुछ और ज्ञापन मिले हैं। इसीलिए अभी तक जवाब नहीं दाखिल किया है। चूंकि मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है, इसलिए आयोग ने निर्णय किया है कि कोर्ट के रूख के मुताबिक ही काम करेगा। इस पर पीठ ने कहा कि आयोग तो स्वयं एक संवैधानिक संस्था है, वह ज्ञापनों पर निर्णय ले सकता है।
बसपा की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता सतीश चंद्र मिश्रा ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करने के बाद चुनाव आयोग में शिकायत की गई है। बसपा चुनाव आयोग को अपना जवाब दे चुकी है। उन्होंने कहा कि हाथी की मूर्तियां चुनाव चिह्न नहीं हैं। वे हाथी स्वागत मुद्रा में हैं। राष्ट्रपति भवन से लेकर अक्षरधाम मंदिर तक में हाथियों की मूर्तियां लगी हैं तो क्या सब बसपा के चुनाव चिह्न मान लिए जाएंगे?
उत्तर प्रदेश सरकार की पैरवी कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने भी यही रूख अपनाते हुए कहा कि एक मामले में दो जगह सुनवाई नहीं हो सकती। कोर्ट इस याचिका को निपटा दे और चुनाव आयोग को फैसला करने दे। उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक स्थलों पर मुख्यमंत्री की मूर्तियों को विरोध करते हुए रविकांत ने कहा कि सरकार ने हजारों करोड़ रूपये इस निर्माण में बर्बाद कर दिए हैं। यह महत्वपूर्ण मुद्दा है और कोर्ट को इस पर सुनवाई करनी चाहिए।
सतीश मिश्रा ने आरोपों का जवाब देते हुए कहा कि करीब 450 योजनाएं कांग्रेस के नेताओं के नाम चल रही हैं। राजघाट पर महात्मा गांधी और अन्य नेताओं की समाधि पर खर्च हुआ। तीन मूर्ति भवन पर खर्च हुआ। इन सबका किसी ने कभी विरोध नहीं किया। रविकांत ने कहा कि उन्हें दलित नेताओं के स्मारकों पर कोई आपत्ति नहीं है। आपत्ति सिर्फ मुख्यमंत्री और बसपा के चुनाव चिह्न हाथी की मूर्तियों को लेकर है। उन्होंने ये मूर्तियां हटाए जाने और उन्हें लगाने पर हुआ खर्च बसपा से वसूले जाने की मांग की।

Friday, February 19, 2010

न्यायिक अधिकारी के रिवर्सन पर हाईकोर्ट की रोक

राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर खंडपीठ ने उच्च न्यायिक सेवा के एक अधिकारी को न्यायिक सेवा में लगाने के प्रकरण में स्टे देते हुए रजिस्ट्रार जनरल से स्पष्टïीकरण मांगा है। उच्च न्यायालय प्रशासन ने उच्च न्यायिक सेवा के अधिकारी एल.डी.किराड़ू को अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के पद पर 28 जनवरी 2009 को लगाया था, जबकि किराड़ू अपर सेशन न्यायाधीश फास्ट टे्रक के पद पर कार्यरत थे। इस रिवर्सन के विरुद्ध किराड़ू ने उच्च न्यायालय जयपुर पीठ में याचिका दायर की थी। 
न्यायालय ने 15 जनवरी 2010 के अपने आदेश में रजिस्ट्रार जनरल को किराड़ू के सेवा संबंधी प्रकरण का अंतिम तौर पर निस्तारण कर एक माह में रिपोर्ट प्रस्तुत करने के निर्देश दिए थे लेकिन रजिस्ट्रार प्रशासन ने इस आदेश की पालना नहीं की, जिस पर खंडपीठ ने रजिस्ट्रार जनरल से स्पष्टïीकरण मांगा है। खंडपीठ ने यह पूछा है कि क्यों और किन परिस्थितियों में आदेश की पालना नहीं की गई। खंडपीठ ने साथ ही किराड़ू के रिवर्सन पर रोक लगा दी है। 
किराड़ू की ओर से अधिवक्ता संजीव प्रकाश शर्मा, रोशन भार्गव तथा उच्च न्यायालय की ओर से अधिवक्ता वी.एस.गुर्जर ने पैरवी की। गौरतलब है कि बीकानेर निवासी किराड़ू वर्तमान में जोधपुर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के पद पर कार्यरत हैं।

आरजेएस परीक्षा परिणाम पर रोक

राजस्थान हाईकोर्ट ने गुरुवार को एक महत्वपूर्ण आदेश में राजस्थान न्यायिक सेवा परीक्षा-2008 के परिणाम घोषित करने पर रोक लगा दी। यह रोक हाईकोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश एएम कपाड़िया व गोपालकृष्ण व्यास की खंडपीठ ने श्रवणकुमार की याचिका की सुनवाई के बाद लगाई है। यह रोक याचिका के निस्तारण तक रहेगी। याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता हनुमानसिंह मेहरिया ने स्केलिंग पद्धति के आधार पर तैयार मेरिट सूची के तहत साक्षात्कार आयोजित करने को चुनौती दी।

इसमें कहा कि उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2007 में संजय सिंह बनाम यूपी पीएससी के मामले में न्यायिक सेवा परीक्षाओं में स्केलिंग पद्धति को असंवैधानिक व अनुपयुक्त करार दिया था।
आरपीएससी की ओर से वर्ष 2005 में आयोजित आरजेएस परीक्षा में स्केलिंग पद्धति अपनाते हुए 2007 में नियुक्तियां दी गई।



इस संबंध में हाईकोर्ट की जयपुर खण्डपीठ ने सरिता नौशाद व व अन्य सत्रह अभ्यर्थियों की ओर से दायर याचिका में स्केलिंग पद्धति को असंवैधानिक करार दिया। साथ ही कहा था कि यह नियुक्तियां हुए काफी समय हो चुका है, इसलिए केवल याचिकाकर्ताओं को ही आरजेएस परीक्षा 2008 की नियुक्तियों से पहले बिना स्केलिंग से साक्षात्कर कर मेरिट के आधार पर नियुक्तियां दी जाएं। जयपुर पीठ के आदेश को आरपीएससी ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी।

उच्चतम न्यायालय ने आरजेएस परीक्षा 2008 से पूर्व इन याचिकाकर्ताओं को नियुक्ति देने के जयपुर पीठ के आदेश पर अंतरिम रोक लगा दी थी। इन आदेशों की आड़ में आरपीएससी ने आरजेएस परीक्षा 2008 की चयन प्रक्रिया में पुन: स्केलिंग पद्धति से तैयार मेरिट के तहत 27 जनवरी २क्१क् से साक्षात्कार आयोजित कर लिए। याचिकाकर्ता श्रवण कुमार ने इस चयन प्रक्रिया को चुनौती दी। अधिवक्ता मेहरिया ने सुनवाई के दौरान तर्क दिया कि आरजेएस नियम 1955 के नियम 14 व 15 के अनुसार स्केलिंग पद्धति से परीक्षा आयोजित करने से पूर्व हाईकोर्ट की सहमति आवश्यक है, जो आरपीएससी ने नहीं ली गई।

Wednesday, February 17, 2010

अदालतें भी दे सकती हैं सीबीआई जांच का आदेश: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्ट लोकसेवकों और राजनीतिक पहुंच रखने वाले समाज विरोधी तत्वों के खिलाफ  सख्त रुख अपनाते हुए व्यवस्था दी है कि संबंधित राज्य सरकार की पूर्व अनुमति के बगैर भी हाईकोर्ट सीबीआई जांच का आदेश दे सकते हैं। शीर्ष कोर्ट के चीफ जस्टिस केजी बालकृष्णन नीत पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने बुधवार को यह अहम व्यवस्था दी।

शीर्ष कोर्ट ने सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार तथा राजनीति का अपराधीकरण रोकने की कोशिश के तहत अपनी व्यवस्था में कहा कि एक बार हाईकोर्ट को यह भरोसा हो जाए कि राज्य की जांच एजेंसियां किसी मामले में स्वतंत्र और निष्पक्ष काम नहीं कर रही हैं तथा मुजरिम को बचाने की कोशिश में हैं, तो राज्य के विरोध के बावजूद वह सीबीआई को मामले की जांच का आदेश दे सकता है।
बेंच ने कहा कि इन शक्तियों का राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय महत्व के अपवादस्वरूप व असाधारण मामलों में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। अन्यथा सीबीआई के पास रोजमर्रा के मामलों का ढेर लग लग जाएगा।
शीर्ष कोर्ट के मुताबिक, हाईकोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट नागरिकों के मौलिक अधिकारों के संरक्षक हैं। प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्र व निष्पक्ष जांच का हक है। राज्य को अपराध या अधिकारों के दुरुपयोग का शिकार बने व्यक्ति को ऐसी जांच के जरिए न्याय पाने से वंचित करने का हक नहीं है।
बेंच ने यह व्यवस्था पश्चिम बंगाल सरकार तथा अन्य द्वारा पेश याचिकाओं पर दी। इन याचिकाओं में कहा गया था कि दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेब्लिशमेंट एक्ट के प्रावधानों के तहत किसी राज्य में सीबीआई तभी जांच कर सकती है जब संबंधित सरकार उसे पूर्व अनुमति दे।

शीर्ष कोर्ट ने इस व्यवस्था के मार्फत वह संरक्षण हटा लिया है जिसके तहत सत्तारूढ़ नेता सीबीआई का आग्रह ठुकरा कर अपने आदमियों को बचाने के लिए कथित रूप से अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हैं।
प्रकाश सिंह बादल के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि यदि किसी लोकसेवक पर भ्रष्टाचार और घूसखोरी के आरोप हैं तो उस पर मुकदमा चलाने के लिए मंजूरी की जरूरत नहीं है क्योंकि आधिकारिक रूप से ड्यूटी पूरी करने और भ्रष्टाचार में कोई संबंध नहीं है।

हरजाना अदा न करने पर एसएसपी ऑफिस नीलाम करने का आदेश।

कोर्ट द्वारा पंजाब पुलिस के एक मुलाजिम के हक में दिए फैसले को लागू न करना खन्ना पुलिस को तब महंगा पड़ा, जब जज जीएस टिवाणा द्वारा पुलिस जिला खन्ना के एसएसपी ऑफिस की कुर्की के हुक्म जारी कर दिए। इस मामले की अगली सुनवाई 6 मार्च को होगी।

हवलदार मनजीत सिंह जो कि जालंधर में बतौर हवलदार कार्य कर रहा है, ने बताया कि वह 1992 में पुलिस विभाग में बतौर एसपीओ भर्ती हो कर खन्ना में तैनात हुआ था। 1993 में नौकरी के दौरान वायरलैस पर गलत सूचना देने पर उस समय के एसएसपी आरएस बेदी ने उन्हें नौकरी से बरखास्त कर दिया था। मामले की जांच में निर्दोश पाए जाने के बाद खन्ना में दोबारा नौकरी पर बहाल होने के लिए जिला अदालत में अर्जी दी।

अदालत द्वारा उसके हक में फैसला देने के बाद भी 1994 से 2001 तक उसे नौकरी पर बहाल नहीं किया गया। अदालत के हुक्म के बावजूद नौकरी और तन्खवाह न देने पर मनजीत सिंह ने वकील लखविन्द्र सूद के सहयोग से पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में अपील की। अदालत ने पंजाब सरकार और पुलिस विभाग को 95 लाख रुपए के करीब हरजाना लगाया। जिस संबंध में पंजाब सरकार द्वारा माननीय सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जिसे सुप्रीम र्कोट ने खारिज कर दिया। अदालत ने 3 फरवरी 2010 को अपने आखिरी फैसले में सरकार को किसी भी हालत में मनजीत सिंह को मुआवजा देने का हुक्म जारी किया। वकील लखविंद्र सिंह ने बताया कि उन्होंने कोर्ट के हुक्म के अनुसार हाईकोर्ट को खन्ना पुलिस की जायदाद का ब्योरा दे दिया है। उन्होंने बताया कि अगर 6 मार्च 2010 तक मनजीत सिंह की सात साल की तन्खवाह , 18 फीसदी ब्याज सहित 95 लाख रुपए न दिए तो खन्ना पुलिस हेडक्वार्टर की नीलामी करवा दी जाएगी।

बता दें कि खन्ना एसएसपी हेडक्वार्टर स्थानीय जीटी रोड पर स्थित है। इस समय उसकी असल कीमत करोड़ों में है। अब देखने वाली बात यह है कि सरकार व विभाग भुगतान का खुद इंतजाम करेंगे या वास्तव में ही दफ्तर को ही बेचना पड़ेगा। एसएसपी खन्ना सुखमिन्द्र सिंह मान ने बताया कि इस सबंध में नीलामी आर्डर नहीं आए हैं, बल्कि अटैचमेंट आर्डर आए हैं।

Monday, February 15, 2010

सज्जन कुमार की अग्रिम जमानत प्रार्थना खारिज की अदालत ने

दिल्ली की एक अदालत ने 1984 के सिख विरोधी दंगों से जुड़े एक मामले में कांग्रेस नेता सज्जन कुमार की अग्रिम जमानत की प्रार्थना को सोमवार को खारिज कर दिया। अभियोजन पक्ष ने दलीद दी कि प्रत्यक्षदर्शी डरे हुए हैं, जिसके बाद अदालत ने सज्जन कुमार की अपील खारिज कर दी।

सीबीआई के विशेष न्यायाधीश पीएस तेजी ने इस पूर्व सांसद को कोई राहत देने से इंकार कर दिया, जिन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए नरसंहार में कथित भूमिका को लेकर समन जारी किया गया था। अदालत ने इन मामलों में छह सह आरोपियों की समान अपील को भी खारिज कर दिया है। अदालत ने कहा कि अदालत सीबीआई के विशेष अभियोजक वाईएके सक्सेना की दलील को स्वीकार करती है, जिन्होंने चश्मदीद के भयभीत होने के आधार पर जमानत अर्जी का पुरजोर विरोध किया है।

सक्सेना ने दिन की शुरुआत में अपनी दलील पेश करते हुए कहा कि चश्मदीद भयभीत हैं। उन्होंने दंगों, हत्या और आगजनी में खासतौर पर सज्जन कुमार की भूमिका के बारे में बयान दिया है।

सजा के वक्त आर्थिक स्थिति का भी ध्यान रखें कोर्ट - सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि मुजरिम का आर्थिक और सामाजिक पिछड़ापन उसके मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में तब्दील कराने में प्रमुख भूमिका निभाता है।

अपराधी मुल्ला और गुड्डु ने 21 दिसम्बर 1995 को अन्य लोगों के साथ मिलकर पांच ग्रामीणों को अगवा कर लिया था और फिरौती की रकम नहीं मिलने पर उनकी हत्या कर दी थी। मृतकों में हरि कुमार त्रिपाठी, नन्हकी., राम किशोर, छोटकी और गंगा देई शामिल थे। न्यायाधीश पी सदाशिवम और न्यायाधीश एच एल दत्तू की खण्डपीठ ने 65 पृष्ठों के अपने फैसले में कहा है कि इस मामले में आजीवन कारावास की सजा पूरी जिन्दगी चलती रहेगी बशर्ते किसी अच्छे कारणों की वजह से सरकार उसमें कटौती न करे।

न्यायाधीश सदाशिवम ने कहा कि दुर्भाग्य से अनेक ऎसे फैसले हैं जिनमें अपराधी की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इन्हीं स्थितियों के कारण कोई व्यक्ति अपराध का रास्ता अख्तियार करता है। हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया कि खण्डपीठ आर्थिक पिछडेपन की वजह से अनैतिकता का रास्ता अख्तियार करने को न्यायोचित नहीं ठहराती है।

न्यायालय ने यह भी कहा कि हमें यह भी सोचना चाहिए कि आर्थिक पिछडेपन की वजह से अपराध की दुनिया में उतरने वाले आदमी में सुधार की गुंजाइश बरकरार रहती है। इन हत्याओं के दोषियों को उत्तरप्रदेश के सीतापुर स्थित निचली अदालत ने मृत्युदण्ड सुनाई था जिसे इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी जायज ठहराया था।

सम्पूर्ण निर्णय

बलात्कार पीडिता के बयान हमेशा सत्य हो जरूरी नहीं-सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि बलात्कार पीडिता के बयान को पूर्ण सत्य नहीं माना जा सकता लेकिन सामान्य परिस्थितियों में उसके बयान पर यकीन किया जाना चाहिए। न्यायाधीश एचएस बेदी और न्यायाधीश जेएम पांचाल की बेंच ने कहा कि पीडिता के बयान को प्रमुखता दी जानी चाहिए लेकिन यह नहीं माना जाना चाहिए कि वह अंतिम सच ही बोल रही है। आरोपों को साबित करने के लिए दूसरे आपराधिक मामलों की तरह उसे भी "तर्कसंगत संदेहों" से परे साबित करना होता है। शीर्ष कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, हमें इस बात का ध्यान है कि बलात्कार के मामलों में पीडिता के बयान को सबसे त्यादा तवज्जो दी जानी चाहिए लेकिन ठीक इसी वक्त व्यापक सिद्धांत यह है कि अभियोजन पक्ष को दूसरे मामलों की तरह बलात्कार के आरोपों को भी तर्कसंगत संदेहों से परे साबित करना होता है। ऎसी कोई अवधारणा नहीं हो सकती कि अभियोजिका पूरी कहानी हमेशा सच ही बताएगी। एक नाबालिग ल़डकी के बलात्कार के आरोपों का सामना कर रहे तीन आरोपियों में से एक अब्बास अहमद चौधरी को रिहा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उक्त बातें कहीं। इस मामले में अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया था कि 15 सितंबर 1997 को मोहम्मद मिजाजुल हक, अब्बास अहमद चौधरी और रंजू दास (फरार) ने पीडिता को जबरन जलालपुर में एक चाय बागान में ले जाकर उसके साथ बलात्कार किया था।
असम के सेशन्स कोर्ट ने दो अभियुक्तों चौधरी और हक को बलात्कार का दोषी पाया। गुवाहाटी हाईकोर्ट ने भी यह फैसला बरकरार रखा। इसके बाद इन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट ने चौधरी को संदेह का लाभ दिया क्योंकि पीडिता के बयान विरोधाभासी थे। 17 सितंबर 1997 को अभियोजिका ने अब्बास अहमद चौधरी पर बलात्कार का कोई आरोप नहीं लगाया। इसी तरह उसने बयान में कहा कि वह उन लोगों में नहीं था जो उसका अपहरण कर जलालपुर चाय बागान में ले गए। साथ ही उसने स्पष्ट रूप से कहा कि वह रंजू दास के साथ गांव लौट रही थी तभी चौधरी कहीं पर उनसे मिला लेकिन उसने बलात्कार नहीं किया। यह भी सत्य है कि उसने कोर्ट में चौधरी पर बलात्कार करने का आरोप लगाया लेकिन उसके पहले के बयानों को देखते हुए चौधरी के बलात्कार करने को लेकर भ्रम की स्थित पैदा होती है। सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि मिजाजुल हक को दोषी ठहराए जाने के फैसले को बरकरार रखा और उसकी अपील खारिज कर दी।

सेवानिवृत्ति के बाद विभागीय जांच नहीं

मुंबई बांबे हाई कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि कानून या विशेष प्रावधानों के बगैर सेवानिवृत्ति के बाद किसी कर्मचारी के खिलाफ विभागीय जांच जारी नहीं रखी जा सकती।

महाराष्ट्र एग्रो इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कारपोरेशन लि. [एमएआईडीसी] का कर्मचारी डी. जाधव दिसंबर 2003 में सेवानिवृत्त हो गया था। कार्यमुक्त होने के दौरान संस्थान ने अपने पत्र में जाधव के काम की प्रशंसा की थी। हालांकि, उसे ग्रेच्युटी की रकम नहीं मिली। वर्ष 2005 में जाधव ने जब इसके लिए आवेदन किया तो जवाब में उसे बताया गया कि उसके खिलाफ कदाचार के मामले में विभागीय जांच चल रही है। जाधव ने इस जांच को हाई कोर्ट में चुनौती दी है।

एमएआईडीसी ने दलील दी कि जाधव को सेवानिवृत्ति के दिन इस बाबत एक पत्र सौंपा गया था। उसकी कार्यमुक्ति संबंधी पत्र की भी जांच हो रही है। जाधव के वकील ने तर्क दिया कि एमएआईडीसी ने महाराष्ट्र नागरिक सेवा [पेंशन] कानून-1982 का अनुपालन नहीं किया। इस नियम के तहत सेवानिवृत्ति के बाद विभागीय जांच जारी नहीं रखी जा सकती। उनका तर्क था कि बिना किसी विशेष प्रावधान के जांच जारी नहीं रखी जा सकती। जस्टिस एफ.आई. रिबेलो और ए.आर. जोशी की हाई कोर्ट पीठ ने याचिकाकर्ता के वकील की दलीलों से सहमति जताई। जाधव को राहत देते हुए अदालत ने कहा, 'कानूनन प्रावधान होने पर ही जांच जारी रखी जा सकती है।'

Wednesday, February 10, 2010

कड़कड़डूमा : देश का पहला पेपरलेस ई-कोर्ट, सभी जिला अदालतें भी ई-कोर्ट में तब्दील होंगी

दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस अजीत प्रकाश शाह ने सोमवार को कड़कड़डूमा कोर्ट में पहली ई- कोर्ट का उद्घाटन किया। उद्घाटन के साथ ही यह कोर्ट न सिर्फ दिल्ली बल्कि देश का पहला पेपरलेस ई-कोर्ट बन गया है। उद्घाटन समारोह को संबोधित करते हुए चीफ जस्टिस ने कहा कि अगले पांच सालों में दिल्ली की सभी कोर्ट को इसी तरह से पेपरलेस कोर्ट में तब्दील कर दिया जाएगा।

जस्टिस शाह ने कहा कि 21वीं सदी में ई-कोर्ट की बहुत जरूरत है। इससे कोर्ट के साथ-साथ कोर्ट में पेश होने वाले सभी पक्षों का टाइम तो बचेगा ही, साथ ही इससे सिस्टम में पारदर्शिता भी आएगी। उन्होंने कहा कि आने वाले पांच साल में दिल्ली की सभी कोर्ट ई-कोर्ट में बदल जाएगी। जस्टिस बी. डी. अहमद ने कहा कि उन्हें अच्छी तरह से याद है कि 2007 में केंदीय मंत्री कपिल सिब्बल के साथ मीटिंग में इस प्रॉजेक्ट पर चर्चा हुई थी। वहां से हरी झंडी मिलने के बाद हाई कोर्ट की कंप्यूटर कमिटी इस प्रॉजेक्ट को पूरा करने में जुट गई। जस्टिस अहमद ने कहा कि गवाह देश के किसी भी कोने में होने के बावजूद विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए अपना बयान दर्ज करा सकता है। इसके साथ ही केस के जांच अधिकारी भी विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए कोर्ट में अपना पक्ष रख सकते हैं।

जस्टिस अहमद ने बताया कि इस सिस्टम की सबसे बड़ी खासियत यह है कि एक साथ पांच लोग अपने बयान दर्ज करा सकेंगे। दूर दराज की जेलों से लाए जाने वाले विचाराधीन कैदियों की भी वहीं से गवाही कराई जा सकती है।

अडिशनल सेशन जज संजय गर्ग ई-कोर्ट के पहले जज बने हैं। कार्यक्रम में जस्टिस एस. मुरलीधर, जस्टिस अनिल कुमार और जस्टिस एस. एन. ढींगरा के अलावा हाई कोर्ट के कई अन्य जजों के अलावा डिस्ट्रिक्ट जज (ईस्ट) पी. एस. तेजी और डिस्ट्रिक्ट जज (नॉर्थ ईस्ट) सुनीता गुप्ता आदि मौजूद थीं।

सजायाफ्ता नाबालिग कर सकता है सरकारी नौकरी

बचपन में आपराधिक मामले का आरोपी रहा एक युवक अब पुलिस बन कर अपराधियों को पकड़ सकेगा। हालांकि इसके लिए उसकी राह आसान नहीं रही और अदालत में गुहार लगाने के बाद ही उसे दिल्ली पुलिस में नौकरी मिल सकी है। इस आदेश के साथ ही कैट ने यह भी कहा है कि यदि किसी नाबालिग को सजा भी हो जाती है तो उसे सरकारी नौकरी देने से इंकार नहीं किया जा सकता है। दरअसल हत्या के प्रयास मामले में आराेपी रहे एक नाबालिग काे अदालत ने बरी कर दिया।

बालिग हाने पर उसने दिल्ली पुलिस भर्ती प्रक्रिया की सभी परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली। लेकिन दिल्ली पुलिस के अधिकारियों ने उस पर चले आपराधिक मामले की वजह से उसका चयन नहीं किया। इसके बावजूद युवक ने हिम्मत नहीं हारी और कैट के समक्ष गुहार लगाई। सुनवाई के बाद कैट ने युवक काे भर्ती करने का आदेश देते हुए दिल्ली पुलिस को तीन माह का समय दिया है।

जानकारी के अनुसार प्रदीप गाजियाबाद का रहने वाला है। उसका जन्म 18 फरवरी 1985 को हुआ था। 12 फरवरी 2002 में उसके खिलाफ गाजियाबाद पुलिस ने धारा 147/324/504/३07 के तहत आपराधिक मामला दर्ज किया था। उस समय वह लगभग 17 वर्ष का था। इस मामले की सुनवाई अदालत में चली और नवंबर 2006 को अदालत ने उसे बरी कर दिया था। वर्ष 2008 में दिल्ली पुलिस में सिपाही पद के लिए आयाेजित भर्ती परीक्षा के लिए प्रदीप ने भी आवेदन किया। आवेदन के समय उसने अपने खिलाफ दर्ज मामले और बरी होने संबंधित सभी जानकारी दिल्ली पुलिस को दी थी। इसके बाद प्रदीप को परीक्षा में बैठने की अनुमति दी गई।
उसने परीक्षा संबंधित सभी प्रक्रियाएं सफलता पूर्वक उत्तीर्ण की। परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद वह कॉल लेटर का इंतजार करने लगा। लेकिन कॉल लेटर के बजाए दिल्ली पुलिस की ओर से उसे आपराधिक मामला दर्ज हाेने के चलते जुलाई 2009 को कारण बताओ नोटिस भेज दिया गया। इसके बाद दिल्ली पुलिस ने उसे फोर्स में भर्ती करने से इंकार कर दिया।

दिल्ली पुलिस के आला-अधिकारियों के इस रवैये से आहत प्रदीप ने कैट की शरण लेते हुए अपने वकील अनिल सिंघल के द्वारा दलील दी कि अदालत प्रदीप काे इस मामले में पहले ही बरी कर चुकी है। दूसरा जब प्रदीप के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था वह नाबालिग था। अदालत ने इस दलील काे मानते हुए यह भी कहा है कि यदि एक नाबालिग काे सजा भी हाे जाए ताे उसे सरकारी नौकरी देने से इंकार नहीं किया जा सकता। अदालत ने पुलिस अधिकारियों को तीन माह के अंदर प्रदीप को सिपाही के पद पर भर्ती करने का आदेश दिया है।

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने मुस्लिमों के लिये आरक्षण को रद्द किया

उच्च न्यायालय ने आज मंगलवार को राज्य सरकार के धार्मिक अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में चार प्रतिशत आरक्षण देने के आदेश को रद्द कर दिया है. इस मामले में अपना निर्णय सुनाते हुये न्यायालय ने कहा कि अल्पसंख्यकों को आरक्षण बनाये नहीं रखा जा सकता है और इसका पालन नहीं किया जा सकता है. हालांकि न्यायालय ने स्पष्ट किया कि शिक्षण संस्थानों में 2007 से अब तक जिन छात्रों को इस कोटे के आधार पर प्रवेश दिया जा चुका है उन पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

न्यायालय के इस आदेश को राज्य की कांग्रेसी सरकार के लिये बड़े झटके के तौर पर देखा जा रहा है जिसने इसके लिये कानून बनाया था. कुछ व्यक्तियों और संस्थानों ने इस विधेयक को असंवैधानिक बताते हुये न्यायालय में चुनौती दी थी. 2004 के बाद से यह तीसरी बार है कि जब उच्च न्यायालय ने राज्य में मुस्लिमों को अलग से आरक्षण देने के निर्णय को रद्द किया है.

2004 में राज्य सरकार ने मुस्लिमों को पांच प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की थी जिसे उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था. हालांकि न्यायालय के निर्देश पर मुस्लिमों की सामाजिक आर्थिक स्थिति का अध्ययन करने के लिये राज्य सरकार ने एक आयोग का गठन जरूर किया था.

Monday, February 8, 2010

कानून मंत्रालय ने जानकारी मांगी कि कितने जजों के रिश्तेदार उसी कोर्ट में?

कानून मंत्रालय ने देश के सभी उच्च न्यायालयों में तैनात ऐसे जजों की जानकारी मांगी है जिनके बच्चे या करीबी रिश्तेदार उसी हाईकोर्ट में वकालत की प्रैक्टिस कर रहे हैं। कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने सभी हाईकोर्टो के चीफ जस्टिस को पत्र लिखकर ये जानकारी उपलब्ध कराने का आग्रह किया है। पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में ही ऐसे 10 से ज्यादा जज हैं जिनके बच्चे या रिश्तेदार यहीं पर प्रैक्टिस कर रहे हैं।मंत्रालय की तरफ से जारी पत्र में कहा गया है कि वह हाईकोर्ट के ऐसे सभी न्यायाधीशों की जानकारी चाहता है जिनके करीबी रिश्तेदार व बच्चे उसी हाईकोर्ट में प्रैक्टिस कर रहे हैं। कानून मंत्रालय का ये पत्र खास अहमियत रखता है क्योंकि हाल ही में लॉ कमीशन ने भी अपनी 230वीं रिपोर्ट में इस बात का जिक्र कर चुका है। माना जा रहा है कि लॉ कमीशन ने न्यायपालिका में पारदर्शिता लाने और व्यवस्था को ज्यादा सुचारु ढंग से चलाने के लिए उन लोगों को हाईकोर्ट जज न लगाने की सिफारिश की है जिनके बच्चे व करीबी रिश्तेदार उसी हाईकोर्ट में वकालत कर रहे हों।

पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में 10 से ज्यादा जज

पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में ऐसे 10 से ज्यादा जज हैं जिनके बच्चे या रिश्तेदार यहीं पर प्रैक्टिस कर रहे हैं। हाईकोर्ट के वकील भी लंबे समय से मांग कर रहे हैं कि जिन जजों के बच्चे व रिश्तेदार यहां वकालत कर रहे हैं, उनका तबादला किया जाए। 800 वकीलों ने इस संबंध में हस्ताक्षर कर एक प्रस्ताव भी बार एसोसिएशन के सामने रखा था। इसमें जजों के तबादले के अलावा उनकी संपत्ति की जानकारी हासिल किए जाने की मांग की गई थी।

हाल में इसी मामले को लेकर पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में किसी अज्ञात शख्स की ओर से तीन किस्तों में पत्र भी जारी किए गए थे। यह पत्र बार एसोसिएशन के सदस्य वकीलों और हाईकोर्ट के कार्यरत जजों को भेजे गए थे। इनमें सुप्रीम कोर्ट से रिटायर्ड जज और उनके वकील बेटे का जिक्र करते हुए संकेत दिया गया था कि कार्यरत जजों का वकालत कर रहे अपने बच्चों के साथ तालमेल की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

अजन्मा शिशु नाबालिग के समान : दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण व्यवस्था देते हुए कहा कि एक अजन्मे शिशु को नाबालिग बच्चे जैसा माना जा सकता है। इस आधार पर कोर्ट ने एक बीमा कंपनी को एक व्यक्ति को ढाई लाख रुपए मुआवजा देने को कहा, जिसकी गर्भवती पत्नी कीडेढ़ साल पहले सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी।जस्टिस जेआर मिथा ने प्रकाश नामक व्यक्ति की अपील स्वीकार कर ली जिसने अजन्मे बच्चे के लिए मुआवजा मांगा था। इसके पूर्व मोटर वाहन दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण (एमएसीटी) ने उसकी याचिका खारिज कर दी थी।

अदालत ने फैसले में कहा, ‘याचिका स्वीकार की जाती है और याचिकाकर्ता को 17 जून 2008 को सात माह के गर्भ की मौत पर साढ़े सात फीसदी सालाना ब्याज के साथ ढाई लाख रुपए मुआवजा देने का आदेश दिया जाता है।’ एमएसीटी सड़क दुर्घटना में पत्नी की मौत के मुआवजे के रूप में 6.11 लाख रुपए प्रकाश को दिए जाने का आदेश दे चुकी है।

जस्टिस मिधा ने रिलायंस जनरल इंश्योरेंस कंपनी को एक माह के भीतर यूको बैंक में दो लाख रुपए जमा करने और शेष राशि दुर्घटना के शिकार परिवार को देने का आदेश दिया। एमएसीटी ने इस आधार पर याचिका ठुकराई थी कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में गर्भस्थ शिशु का कोई जिक्र नहीं था। याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि दुर्घटना 8 जून 2008 को हुई थी और 17 जून को महिला के गर्भस्थ शिशु को निकाला गया और 14 अगस्त को महिला की मौत हुई।

अमेरिकी दलाली खाते हैक करने में भारतीय दोषी करार

अमेरिका में ऑनलाइन दलाली खातों को हैक करने के एक अंतरराष्ट्रीय गोरखधंधे में शामिल होने के आरोप में एक भारतीय नागरिक को दोषी करार दिया गया है । 
मूल रूप से चेन्नई के रहने वाले जयशंकर मरिमुथु नाम के 35 वर्षीय भारतीय नागरिक पर दलाली खातों का इस्तेमाल स्टॉक की कीमतों में हेरपेर कर गैरकानूनी मुनापे के तौर पर हजारों डॉलर अर्जित करने का आरोप था। इस मामले में दोषी को सात साल तक की सजा सुनायी जा सकती है । मरिमुथु को 26 अप्रैल को होने वाली अदालती सुनवाई में सजा सुनायी जाएगी । मरिमुथु को अमेरिका के नेब्रास्का के जिला मजिस्ट्रेट जज एप. ए. गॉसेट तृतीय की अदालत में पांच फरवरी को दोषी करार दिया गया ।

इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों के सटीक परीक्षण की जरूरत

इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों के मामलों में ‘सबूत के मानक’ पर जोर देते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि ऐसे साक्ष्यों का दूसरे दस्तावेजी सबूतों की तुलना में अधिक कड़ाई से और सटीक परीक्षण किया जाना चाहिए।

साल 2004 में महाराष्ट्र की सिन्नर सीट से शिवसेना की टिकट पर जीते और भड़काऊ भाषण देने के आरोपों का सामना कर रहे माणिकराव शिवाजी कोकाते के निर्वाचन को सही ठहराते हुए शीर्ष न्यायालय ने कहा‘ऐसे साक्ष्य का कड़ाई से परीक्षण नहीं किया जाना विजयी उम्मीदवार के खिलाफ गंभीर पूर्वाग्रह होगा। उसके निर्वाचन को न केवल रद्द कर दिया जाएगा बल्कि एक निश्चित अवधि के लिए उसे चुनाव लड़ने से अयोग्य भी करार दिया जा सकता है। इससे उसके राजनीतिक करियर पर बुरा असर पड़ेगा।’

न्यायमूर्ति डी के जैन और न्यायमूर्ति पी सथाशिवम की पीठ ने फैसले में कहा ‘इसलिये चुनाव याचिकाकर्ता की यह भारी जिम्मेदारी बनती है कि कदाचार के आरोपों को वह उसी तरीके से साबित करे जिस तरह से आपराधिक मामलों में किया जाता है।’माणिकराव के निर्वाचन को राकांपा कांग्रेस और आरपीआई गठबंधन के पराजित उम्मीदवार तुकाराम दिघोले ने चुनौती दी थी।

पीठ ने कहा ‘हालांकि इलेक्टॉनिक साक्ष्यों की स्वीकार्यता को लेकर नियम तय करना न तो व्यवहारिक है और न ही इसकी सलाह ही दी जा सकती है। ऐसे साक्ष्यों में किसी भी प्रकार की छेड़खानी की जरा सी भी संभावना को खत्म करने के लिए इसकी प्रामाणिकता और खरेपन को जाँचने के मकसद से दूसरे दस्तावेजी सबूतों की तुलना में इनकी अधिक कड़ाई से परीक्षण की जरूरत है।’

बंबई उच्च न्यायालय के चुनावी पंचाट के समक्ष दायर की गई याचिका के खारिज कर दिए जाने के बाद दिघोले ने शीर्ष अदालत में अपील दायर की थी।

गौरतलब है कि चुनावी पंचाट ने माणिकराव द्वारा कथित तौर पर दिए गए भड़काऊ भाषण के सबूत के तौर दिए गए वीडियो कैसेट को वास्तविक मानने से इन्कार कर दिया था। दिघोले ने वीडियो निर्वाचन आयोग से प्राप्त करने का दावा किया था।

लेकिन मामले की सुनवाई के दौरान दिघोले पंचाट के समक्ष यह साबित नहीं कर पाए कि वीडियो कैसेट की नकल उन्हें निर्वाचन आयोग से ही प्राप्त हुई थी।

दिघोले ने माणिकराव पर मराठी भावनाओं को भड़काने का आरोप लगाया था। उसका कहना था कि माणिकराव के कथित भाषण की वजह से उसकी चुनावों में उसकी जीत की संभावनाएँ धूमिल हो गईं।

पंचाट के फैसले को सही ठहराते हुए उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्व के फैसलों का उदाहरण देते हुए कहा कि जीते गए उम्मीदवार के निर्वाचन के मामले में हल्के तौर पर दखल नहीं देना चाहिए।

पीठ ने कहा‘विजेता उम्मीदवार के निर्वाचन को चुनौती देने वाली याचिका कानूनी शर्तों के मुताबिक ही होनी चाहिए।’(भाषा)

Sunday, February 7, 2010

सीनियॉरिटी की अनदेखी कर बने जजों का केंद्र सरकार के पास कोई रेकॉर्ड नहीं ।

केंद्र सरकार के पास सीनियॉरिटी की अनदेखी कर बने जजों का कोई रेकॉर्ड नहीं है। यह खुलासा एक आरटीआई के जवाब में हुआ। यह हाल तब है जब पीएमओ भी हाई कोर्ट के तीन चीफ जस्टिस की नियुक्ति के मामले में सीनियॉरिटी की अनदेखी करने पर हस्तक्षेप कर चुका है। दिलचस्प यह भी है कि बार मेंबर्स यह रेकॉर्ड रखते हैं पर कानून और न्याय मंत्रालय के पास इसका कोई रेकॉर्ड नहीं है।

आरटीआई ऐक्टिविस्ट सुभाष चंद्र अग्रवाल ने इस संबंध में राष्ट्रपति सचिवालय से जानकारी मांगी थी जिन्होंने इसे न्याय विभाग को ट्रांसफर कर दिया। आरटीआई के जवाब में कहा गया है कि उनके पास ऐसी कोई लिस्ट नहीं है  जिनमें उन जजों के नाम हो जिनकी हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में प्रमोशन को राष्ट्रपति ने लौटाया हो। यह जानकारी भी नहीं है कि विभिन्न हाई कोर्ट में कौन सीनियॉरिटी लिस्ट की अनदेखी कर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। जस्टिस डिपार्टमेंट के सेंट्रल पब्लिक इन्फॉर्मेशन ऑफिसर एस. के. श्रीवास्तव की ओर से जवाब में कहा गया कि इस तरह की कोई लिस्ट डिपार्टमेंट मेनटेन नहीं करता है।

पिछले साल नवंबर में नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी में स्पीच देते हुए कानूनविद् फाली. एस. नरीमन ने कहा था कि जस्टिस पटनायक की सीनियॉरिटी को तीन बार लांघा गया और चौथी बार सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तब जब कॉलेजियम के एक सदस्य जज रिटायर हो गए। साफ है मंत्रालय के पास भले ही इन मामलों के कोई रेकॉर्ड नहीं हो पर बार मेंबर्स को भी इसकी जानकारी है।

गौरतलब है कि हाल ही में चीफ इन्फॉर्मेशन कमिशन ने सुप्रीम कोर्ट को निर्देश दिए थे कि उन तीन जजों की नियुक्ति के रेकॉर्ड पब्लिक को बताए जाएं, जिन्हें सीनियॉरिटी की अनदेखी कर नियुक्त किया गया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने जानकारी सार्वजनिक करने के बजाय इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से ही स्टे ले लिया।

सिमी पर लगा प्रतिबंध 2 साल के लिए बढ़ा

केंद्र ने स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट्स ऑफ इंडिया (सिमी) के खिलाफ गैरकानूनी गतिविधियां निवारण कानून, 1967 के तहत लगे प्रतिबंध को 7 फरवरी से 2 साल के लिए बढ़ा दिया है. गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने यह जानकारी दी. उन्होंने कहा कि सुरक्षा एजेंसियों को ऐसे सबूत मिले, जिससे पता चलता है कि सिमी देश में आतंकी हमले करने की योजना बना रहा है. इसके आलोक में उसके खिलाफ लगे प्रतिबंध को बढ़ा दिया गया है.

आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने पर सिमी के खिलाफ पहली बार सितंबर, 2001 में प्रतिबंध लगाया गया था. इसके बाद 2003 और 2006 में इसे बढ़ाया गया. सिमी के खिलाफ प्रतिबंध को आखिरी बार 8 फरवरी, 2008 को बढ़ाया गया था. गृह मंत्रालय की अधिसूचना के अनुसार गैरकानूनी संगठन सिमी ऐसी गतिविधियों में लिप्त है, जो देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक हैं. इसके अलावा उससे देश के सामाजिक तानेबाने के प्रभावित होने तथा शांति एवं सांप्रदायिक सौहार्द को नुकसान होने की आशंका है.

संगठन के तार पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठनों खासकर लश्कर-ए-तैयब और जैश-ए-मुहम्मद से जुड़े होने के आरोप हैं. कानून के प्रावधानों के अनुसार फैसले की पुष्टि के लिए सरकार को उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश की अगुवाई में एक न्यायाधिकरण का गठन करना होगा. न्यायाधिकरण का गठन एक हफ्ते के अंदर करना होगा और प्रतिबंध के बारे में कोई फैसला छह महीनों के अंदर लेना होगा.

सिमी ने विगत में प्रतिबंध के फैसलों को चुनौती दी थी, लेकिन उसकी अपील अस्वीकार कर दी गयी. सिमी पर 2006 में मुंबई ट्रेन विस्फोटों और मालेगांव विस्फोटों में शामिल होने का आरोप है. सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार अन्य स्थानों के अलावा मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, केरल, बिहार और महाराष्ट्र में संगठन के प्रति सहानुभूति रखने वाले लोग हैं.

सिमी ने 7 फरवरी, 2008 की अधिसूचना को चुनौती दी थी. इसकी सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय के एक न्यायाधिकरण ने 2 साल का प्रतिबंध हटा दिया था. बाद में उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधिकरण के आदेश को स्थगित कर दिया था.

हिमाचल के नए मुख्य न्यायाधीश 8 को पदभार संभालेंगे

हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के नए मुख्य न्यायाधीश आठ फरवरी को पदभार संभाल लेंगे। हाई कोर्ट के एक अधिकारी ने बुधवार को बताया कि केरल हाई कोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश कुरियन जोसेफ हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ लेंगे।

हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जगदीश भल्ला को राजस्थान हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया है। मुख्य न्यायाधीश के रूप में जगदीश भल्ला की नियुक्ति फरवरी 2008 में हुई थी लेकिन 3 अगस्त 2009 को उन्हें राजस्थान ट्रांसफर कर दिया गया।

इस समय न्यायमूर्ति आर.बी. मिश्रा हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश हैं।

राजस्थान हाई कोर्ट की खंडपीठ ने आरएएस में स्केलिंग प्रणाली को चुनौती देने के मामले में दखल से इनकार

राजस्थान हाई कोर्ट की खंडपीठ ने आरएएस परीक्षा 07 में स्केलिंग प्रणाली को चुनौती देने के मामले में सरकार के प्रार्थना पत्र पर दखल से इनकार कर दिया जिसमें आरएएस के पदों पर नियुक्ति की अनुमति मांगी थी। न्यायाधीश के.एस.राठौड़ व महेश भगवती की खंडपीठ ने सरकार को निर्देश दिया कि वह सिंगल बैंच में ही जाएं। खंडपीठ ने यह निर्देश सरकार की अपील का निपटारा करते हुए दिया।खंडपीठ ने कहा, यदि एकलपीठ 8 फरवरी तक मामले की सुनवाई न करे तो सरकार एकलपीठ के समक्ष आरएएस पदों पर नियुक्ति की अनुमति का प्रार्थना पत्र पेश करें। यदि एकलपीठ चाहे तो नियुक्तियों की अनुमति याचिका के निर्णय के अधीन रखते हुए दे सकती है। खंडपीठ ने दोनों पक्षों को कहा कि वे एकलपीठ से मामले का जल्द निपटारा करने का आग्रह करें।

यह है मामला

याचिकाओं में आरएएस परीक्षा 2007 में स्कैलिंग प्रणाली को चुनौती देते हुए कहा था कि इससे कई अभ्यर्थी अच्छे अंक प्राप्त करने के बाद भी मेरिट में नहीं आ सके। परीक्षा में अनिवार्य विषयों में स्केलिंग कर दी गई, जो न्यायोचित नहीं है। जिन अभ्यर्थियों के स्केलिंग में अधिक अंक आए थे, उनके साक्षात्कार में भी अधिक अंक दिए गए , इससे याचिकाकर्ता अभ्यर्थी मेरिट में आने से वंचित रह गए।

हाई कोर्ट की एकपीठ ने 13 नवंबर 09 के आदेश से नियुक्तियों पर अंतरिम रोक लगाते हुए सरकार को निर्देश दिया था कि वह नियुक्ति की प्रक्रिया जारी रखे, लेकिन अदालत की अनुमति के बिना नियुक्ति न करे। यह अंतरिम आदेश जयसिंह व पांच अन्य की याचिकाओं पर दिया था। साथ ही राज्य सरकार को अभ्यर्थियों के मेडिकल व पुलिस सत्यापन की प्रक्रिया जारी रखने की छूट दी थी।

मायके में रह रही महिला को भरण-पोषण पाने का हक नहीं

जबलपुर कुटुम्ब न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में व्यवस्था दी है कि मर्जी से मायके में रह रही महिला को भरण-पोषण पाने का हक नहीं है। विशेष न्यायाधीश शशिकिरण दुबे द्वारा एक महिला द्वारा दायर अर्जी खारिज करते हुए यह व्यवस्था दी।

श्रीमती आराधना की ओर से दायर अर्जी पर हुई सुनवाई के दौरान महिला की ओर से पति दीपक से भरण-पोषण की राशि दिलाए जाने की प्रार्थना की गई थी। सुनवाई के दौरान महिला ने स्वीकार किया था कि वह ससुराल वालों के साथ एडजस्ट नहीं हो पा रही है, इसलिए वह अपने पति से बंधन मुक्त होना चाहती है। उसने इस आशय का एक पत्र अपने पिता को भी लिखा था कि ससुराल में उसका मन नहीं लगता।

इन तमाम बातों पर गौर करने के बाद अदालत ने अर्जी पर फैसला देते हुए कहा कि यह पत्नी द्वारा पति का स्वैच्छिक परित्याग माना जाएगा। पति भले ही कमाई कर रहा हो, लेकिन अपनी मर्जी से मायके में रह रही महिला भरण-पोषण की राशि पाने का अधिकार खो चुकी है। इस मत के साथ अदालत ने महिला की अर्जी खारिज कर दी। प्रकरण में अनावेदक पति की ओर से अधिवक्ता सुशील कुमार मिश्रा द्वारा वरिष्ठ अधिवक्ता आदर्श मुनि त्रिवेदी के मार्गदर्शन में पैरवी की गई।

प्राइवेट स्कूल का अनुभव फिर भी साक्षात्कार दें: हाई कोर्ट

राजस्थान हाई कोर्ट ने प्रबोधक पद पर भर्ती के मामले में निजी शिक्षण संस्था से अनुभव प्राप्त याचिकाकर्ता अभ्यर्थियों को साक्षात्कार में शामिल करने का निर्देश देते हुए राज्य सरकार से जवाब तलब किया है। न्यायाधीश अजय रस्तोगी ने यह अंतरिम आदेश महेश कुमार मीणा व अन्य की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए दिया। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि उन्होंने निजी शिक्षण संस्था से पांच साल का शिक्षण कार्य का अनुभव प्राप्त किया था। इसके आधार पर उन्होंने प्रबोधक पद पर नियुक्ति के लिए आवेदन किया। लेकिन आवेदन पत्र के जिला शिक्षा अधिकारी के द्वारा प्रमाणित नहीं किए जाने के कारण उन्हें साक्षात्कार में शामिल नहीं किया गया। राज्य सरकार अब पुन: प्रबोधक पद पर नियुक्ति के लिए साक्षात्कार ले रही है, इसलिए उन्हें साक्षात्कार में शामिल करवाने के निर्देश दिए जाएं। न्यायाधीश ने प्राथमिक शिक्षा निदेशक व जिला शिक्षा अधिकारी अलवर व जयपुर से जवाब तलब किया।

Tuesday, February 2, 2010

चिदम्बरम का राष्ट्रपति से गुजकोका पर हस्ताक्षर न करने का अनुरोध

सरकार ने राष्ट्रपति से गुजरात संगठित अपराध कानून .गुजकोका. से संबंधित गुजरात सरकार के विधेयक को मंजूरी न देने का अनुरोध किया है ! सूत्रों के अनुसार केन्द्रीय गृह मंत्री पी चिदम्बरम ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को भेजे एक नोट में उनसे गुजकोका पर हस्ताक्षर नहीं करने का अनुरोध किया है ! इसका कारण यह बताया गया है कि गुजरात सरकार ने इसमें सुझाये गये संशोधनों को शामिल नहीं किया है ! नोट में कहा गया है कि इस विधेयक में अभी भी वे प्रावधान शामिल हैं जिन पर केन्द्र सरकार ने आपत्ति जताई थी !
गुजरात में भारतीय जनता पार्टी की सरकार द्वारा आतंकवाद के खिलाफ मुहिम के तहत पारित किया गया यह विधेयक पिछले कुछ समय से राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए लंबित है ! राष्ट्रपति द्वारा इस विधेयक को नवम्बर 2008 में भी वापस भेजा जा चुका है ! गुजरात विधानसभा ने यह विधेयक चार बार पारित किया है 1 इस विधेयक को आखिरी बार पिछले वर्ष जुलाई में पारित किया गया था !

नसबंदी फेल होने पर संतान पैदा होना चुनावी अयोग्यता है : राजस्थान हाई कोर्ट

राजस्थान हाई कोर्ट ने पंचायत चुनाव से संबंधित एक निर्णय में कहा है कि नसबंदी फेल होने के बाद भी यदि तीसरी संतान होती है तो उस स्थिति में वह चुनावी अयोग्यता मानी जाएगी। हाई कोर्ट ने कहा कि राजस्थान पंचायत राज अधिनियम में ऐसा कोई अपवाद नहीं है कि, नसबंदी फेल होने के बाद संतान होने पर चुनाव लडऩे वाले प्रत्याशी को चुनाव के लिए अयोग्य न माना जाए। 
न्यायाधीश आर.एस.चौहान ने यह आदेश जयपुर जिले की फागी तहसील निवासी गजानंद की याचिका को खारिज करते हुए दिया। न्यायाधीश ने आदेश में कहा कि अदालत को यह क्षेत्राधिकार नहीं है कि वह तीसरी संतान पैदा होने पर चुनाव लडऩे के दावेदार को अयोग्य न ठहराए और इसके लिए कानून में संशोधन करे।
याचिकाकर्ता के वकील धर्मवीर ठोलिया ने कहा कि गजानंद की पत्नी ने सरकारी कैंप में नसबंदी कराई थी लेकिन नसबंदी फेल होने के कारण उसकी तीसरी संतान हो गई और राज्य सरकार के 27 नवंबर 95 के आदेश के कारण वह चुनाव लडऩे के लिए अयोग्य हो गया। याचिका में गुहार की गई कि, चूंकि सरकारी चिकित्सक की लापरवाही से नसबंदी फेल होने के कारण उसके तीसरी संतान हुई है। इसलिए उसे चुनाव लडऩे की अनुमति दी जाए। लेकिन कोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए याचिकाकर्ता को चुनाव लडऩे के लिए अयोग्य ठहराया।

न्यायिक सेवा परीक्षा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी किया।

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को राजस्थान न्यायिक सेवा- सिविल जज जूनियर डिविजन की परीक्षा - 2005 के संदर्भ में राजस्थान हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली राजस्थान राज्य लोक सेवा आयोग की 17 विशेष अनुमति याचिकाओं पर राज्य सरकार और 17 विफल अभ्यर्थी प्रतिवादियों को कारण बताओ नोटिस जारी किया।

नोटिस का जवाब 18 फरवरी तक देने का निर्देश दिया। ज्ञातव्य हो कि 18 दिसम्बर 2009 को सुप्रीम कोर्ट ने सरिता नौशाद के एक मामले में नोटिस जारी करते हुए हाई कोर्ट द्वारा 27 अक्टूबर 2009 के फैसले पर अंतरिम स्थगनादेश जारी किया था। मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन न्यायाधीश जे एम पंचाल और न्यायाधीश दीपक वर्मा की खण्डपीठ को राजस्थान राज्य लोक सेवा आयोग की ओर से अघिवक्ता सूर्यकांत ने कहा कि आयोग द्वारा राजस्थान न्यायिक सेवा - 2005 की प्रतियोगी परीक्षा के अंकों के स्केलिंग का प्रावधान रखा गया था जो कि न्यायोचित है।

परन्तु हाई कोर्ट ने 27 अक्टृूबर 2009 को आयोग के तर्क को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा संजय सिंह बनाम उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के फैसले को आधार मानते हुए प्रतिवादियों की याचिकाएं मंजूर कर ली थी। खण्डपीठ ने बहस सुनने के बाद राजस्थान हाई कोर्ट राज्य सरकार सहित 17 प्रतिवादियों को कारण बताओ नोटिस जारी किया।

न्यायाधीश सप्रे का तबादला राजस्थान हाईकोर्ट में

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश अभय मनोहर सप्रे का तबादला राजस्थान उच्च न्यायालय में किया गया है।

राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन से विचार-विमर्श के बाद न्यायाधीश सप्रे का तबादला राजस्थान उच्च न्यायालय में किए जाने का आदेश जारी किया है।

केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय की ओर से सोमवार को जारी विज्ञप्ति के अनुसार राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 222 के उपखंड एक में वर्णित प्रावधानों के तहत न्यायमूर्ति सप्रे का तबादला किया है। उन्हें 12 फरवरी तक कार्यभार ग्रहण करने को कहा गया है।

विधानसभाध्यक्ष नोटिस तामील नहीं तो कर देंगे फैसला-राजस्थान उच्च न्यायालय

बहुजन समाज पार्टी के छह विधायकों के कांग्रेस में दलबदल सम्बन्धी मामले में हाईकोर्ट की खण्डपीठ ने सोमवार को विधानसभा अध्यक्ष, सचिव, सम्बन्धित विधायकों व मुख्य सचिव को नोटिस जारी किया। अपने आदेश में हाईकोर्ट ने यह भी कहा है कि सामान्य प्रक्रिया के अलावा प्रतिवादियों को रजिस्टर्ड डाक से भी नोटिस भेजे जाएं। एक माह में तामील रसीद प्राप्त नहीं होगी, तो अपील का अंतिम निस्तारण प्रारम्भिक चरण में ही कर दिया जाएगा। न्यायाधीश एन.के.जैन एवं आर.एस.राठौड़ की खण्डपीठ ने यह अंतरिम आदेश बाड़ी(धौलपुर) निवासी अपीलकर्ता श्रीकृष्णा की विशेष अपील पर सोमवार को दिए।

अपीलकर्ता के अधिवक्ता हेमन्त नाहटा ने बताया कि एकलपीठ ने 18 दिसम्बर, 2009 को याचिका को खारिज कर दिया था। एकलपीठ ने संविधान की दसवीं अनुसूची के पैरा संख्या सात के आधार पर याचिका खारिज की थी। इसके तहत सरकार की ओर से कहा गया था कि विधानसभाध्यक्ष की ओर से जारी किसी भी आदेश को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।

सुप्रीम कोर्ट की एक व्यवस्था का हवाला देते हुए अपील में कहा गया है कि संविधान की दसवीं अनुसूची के पैरा संख्या सात को अविधिमान्य घोषित किया जा चुका है। उस व्यवस्था के आधार पर एकलपीठ का याचिका खारिज किया जाना पूर्णतया गलत है। अपील में बताया है कि 9 अप्रेल, 2009 को आदेश को पारित करते समय विधानसभाध्यक्ष के समक्ष छह बसपा विधायकों को अयोग्य घोषित किए जाने की कोई याचिका पेश नहीं की गई थी।

इसके अभाव में विधानसभाध्यक्ष को दसवीं अनुसूची का क्षेत्राधिकार प्राप्त नहीं हुआ था। इसलिए बसपा विधायकों की ओर से बसपा पार्टी का कांग्रेस पार्टी में विलय कर देने का दावा और उस पर विधानसभाध्यक्ष की ओर से दिया गया आदेश शुरू से ही शून्य एवं निष्प्रभावी है। अपील में मांग की गई है कि एकलपीठ का आदेश और विधानसभाध्यक्ष के 9 अप्रेल, 2009 के आदेश को निरस्त किया जाए।

अधिवक्ता हेमंत नाहटा ने न्यायालय को बताया कि विधानसभाध्यक्ष एवं सचिव की ओर से पिछली बार तामील कुनिन्दे को विधानसभा में घुसने से रोकने और नोटिस को पढ़कर लेने से मना कर दिया था। इस पर न्यायालय ने निर्देश दिए कि सामान्य प्रक्रिया के अलावा नोटिस रजिस्टर्ड पोस्ट से भी भिजवाए जाएं और यदि एक माह में तामील प्राप्ति नहीं होती है तो तामील पूर्ण मानते हुए प्रकरण का अंतिम निस्तारण प्रारम्भिक चरण पर ही कर दिया जाएगा।

अपील के साथ पेश स्थगन याचिका में यह प्रार्थना की गई है कि सुनवाई के दौरान छह विधायकों को इनकी मूल दलीय स्थिति में लाया जाए, उनका वोट स्थगित रहे और तीन मंत्रियों एवं तीन संसदीय सचिवों को पदों पर कार्य करने से रोका जाए। अपील पर प्रतिदिन सुनवाई हो। इन विधायकों का मामलाराजेन्द्र गुढ़ा, राजकुमार शर्मा, मुरारी लाल मीणा, रामकेश मीणा, रमेश मीणा,गिरिराज सिंह मलिंगा।