पढ़ाई और जीवन में क्या अंतर है? स्कूल में आप को पाठ सिखाते हैं और फिर परीक्षा लेते हैं. जीवन में पहले परीक्षा होती है और फिर सबक सिखने को मिलता है. - टॉम बोडेट

Sunday, January 2, 2011

आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों का हनन- उच्चतम न्यायालय

उच्चतम न्यायालय ने स्वीकार किया है कि 1976 में आपातकाल के समर्थन में दिये गये इसके फ़ैसले से देश में बडी संख्या में लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ.

न्यायमूर्ति आफ़ताब आलम और अशोक कुमार गांगुली की पीठ ने एक फ़ैसले में कहा कि आपातकाल के दौरान एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला मामले (1976) में पांच सदस्यों वाली संविधान पीठ द्वारा मौलिक अधिकारों को निलंबित रखने का बहुमत से लिया गया फ़ैसला एक ‘‘भूल’’ थी.

अदालत ने एक व्यक्ित द्वारा एक ही परिवार के चार सदस्यों की हत्या के मामले में सुनवाई के दौरान यह बात कही. अदालत ने इस व्यक्ित की मौत की सजा को आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया. पहले उच्चतम न्यायालय ने ही उसके मौत की सजा को बरकरार रखा था.

न्यायमूर्ति गांगुली ने कहा, ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि एडीएम जबलपुर मामले में इस अदालत के बहुमत के फ़ैसले से देश में बडी संख्या में लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ.’’

न्यायाधीशों ने पांच मई 2009 के अपनी अदालत के फ़ैसले को ही दरकिनार कर दिया जिसमें इसने रामदेव चौहान उर्फ़ राजनाथ चौहान की मौत की सजा को बरकरार रखा था . चौहान ने आठ मार्च 1992 को भाबनी चरण दास और उनके परिवार के तीन लोगों की हत्या कर दी थी.

न्यायमूर्ति गांगुली ने फ़ैसले में लिखा, ‘‘इस अदालत द्वारा मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले फ़ैसले भले ही विरल हों लेकिन ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ऐसी स्थिति कभी नहीं आई.’’

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