पढ़ाई और जीवन में क्या अंतर है? स्कूल में आप को पाठ सिखाते हैं और फिर परीक्षा लेते हैं. जीवन में पहले परीक्षा होती है और फिर सबक सिखने को मिलता है. - टॉम बोडेट

Wednesday, June 24, 2009

विधवा ने एक दशक बाद मिली न्याय ।

एक सरकारी कर्मचारी की विधवा ने एक दशक तक चली कानूनी लड़ाई के बाद अपने पति की सेवा से बर्खास्तगी को उच्चतम न्यायालय से गलत साबित करवाने में अंतत:सफलता पायी। 
बिहार विद्यालय परीक्षा समिति में सहायक के तौर पर काम करने वाले भृगु आश्रम प्रसाद को 1992 में सेवा से बर्खास्त किया गया। उसकी बर्खास्तगी एक न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा उसे छात्रों की अंकतालिका में कथित हेरफेर का दोषी ठहराने और दो साल की सश्रम कारावास की सजा सुनाने के बाद की गयी। प्रसाद ने इस फैसले को सत्र न्यायालय में चुनौती दी लेकिन अपील की सुनवाई के दौरान ही 1998 में उसकी मृत्यु हो गयी। इसके बाद उसकी पत्नी बसंती ने कानूनी लड़ाई जारी रखी। 
सत्र न्यायालय ने 2005 में प्रसाद को बरी कर दिया। इसके बसंती ने पटना उच्च न्यायालय में एक अपील दायर कर अधिकारियों को यह निर्देश का अनुरोध किया कि मृतक को उसकी बर्खास्तगी की मूल तारीख से सभी बकाया का भुगतान किया कयोंकि उसे दोषी ठहराये जाने के फैसले को खारिज किया जा चुका है। उच्च न्यायालय की एकल न्यायाधीश की पीठ ने याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया कि याचिका पर इतने लंबा समय बीत जाने के बाद विचार नहीं किया जा सकता। अदालत का विचार था कि प्रसाद को अपने जीवनकाल में 1992 में अपनी बर्खास्तगी को चुनौती देनी चाहिए थी। बंसती इसके बाद खंड पीठ में गयी लेकिन उसने एकल पीठ के फैसले को बरकरार रखा। इसके बाद प्रसाद की विधवा ने शीर्ष न्यायालय की शरण ली। 
शीर्ष न्यायालय ने बसंती के पक्ष को सही ठहराते हुए कहा कि सामान्य परिस्थितियों में इस तरह की पुराने अनुरोधों पर विचार नहीं किया जाता। लेकिन जब याचिकाकर्ता विलंब के लिए संतोषजनक कारण देने में सक्षम हो तो ऐसे मामलों में अदालत को याचिकाकर्ता को राहत देना ही पड़ेगा।

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