पढ़ाई और जीवन में क्या अंतर है? स्कूल में आप को पाठ सिखाते हैं और फिर परीक्षा लेते हैं. जीवन में पहले परीक्षा होती है और फिर सबक सिखने को मिलता है. - टॉम बोडेट

Monday, August 2, 2010

अदालती विलम्ब का सबसे बड़ा उदाहरण, 56 साल, 19 जज और 550 तारीखें

शेख मोहम्मद हबीबुल्लाह बनाम मोहन लाल वगैरह मुकदमे के मुद्दई (वादी) को इस दुनिया से गुजरे 34 साल हुए। मई 1954 में पटना व्यवहार न्यायालय के अवर न्यायाधीश की अदालत में दाखिल इस सिविल वाद (संख्या 18/1954) में सुनवाई की पहली तारीख 22 जून 1954 थी। मूल मुकदमे से निकले दूसरे विविध वादों में बंटकर, कई पेचीदगियों में छितराया यह मामला, 56 साल और अब तक सुनवाई की 550 तारीखों के बाद, पटना सिटी सिविल कोर्ट के अवर न्यायाधीश पंचम की अदालत में है। यानी इतने साल बाद भी मुकदमा फैसले के लिए न्यायिक सीढ़ी की पहली पायदान पर ही अटका है। आगे का सफर तो पक्षकारों के बचे हौसले और हक पाने की उनके अन्दर सुलग रही आंच ( अगर राख न हो गयी हो तो) पर तय होना है।

वकीलों की राय है कि अगर मामला अपील और फिर अपील तक गया तो इसके निबटारे में 150 साल भी लग सकते हैं। अब तो धूल की तह जमी फाइल, पक्षकारों की आह सोख बादामी से कुछ स्याह से हो चुके यानी अपनी असल रंगत खो चुके कागजों/ दस्तावेजों, पैमाइश के नक्शों की कटी- मिटी लकीरों और कुछ उड़ से गये हर्फ के बीच, इस मुकदमे के पक्षकारों की नवैयत भी गुजरे जमाने की बात हो चुकी है। शेख मोहम्मद हबीबुल्लाह का इंतकाल 1976 में ही हो गया था। गौरतलब है कि यह मामला जमीनी विवाद से संबंधित है। मुकदमा पटना सिटी के चौक थाना क्षेत्र के मुर्चा रोड निवासी शेख मोहम्मद हब्बीबुल्लाह ने किया था। मामले में मारुफगंज निवासी मोहन लाल व अन्य को प्रतिवादी बनाया गया। मुकदमा लंबा चला और मामले में मार्च 1973 तक 178 तारीखें पड़ीं। मामला अभी तक 19 जजों के सामने से गुजर चुका है। मामले में वकील भी बदलते रहे और अब तक कई वकीलों का दिमाग यह मुकदमा चाट चुका है।

एक अधिवक्ता तेज बहादुर सिंह की तो अब मृत्यु हो चुकी है। इस मुकदमे की जायदाद, मारुफगंज स्थित विवादित जमीन करीब छह कट्ठा है। मामले में 28 मई 1988 को एक पक्षीय डिक्री हो गयी। एकपक्षीय डिक्री भी 26 जून 2004 को रद कर दी गयी। फिर तो कानूनी चालों और फितरत ने इस एक मुकदमे से कई दूसरे मुकदमे पैदा कर दिये जिसे वकील मिसलेनियस वाद कहते हैं।

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