गुजरात उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि किसी सरकारी कर्मचारी की पुनर्नियुक्ति बिना शर्त होनी चाहिए तथा 'सभी उद्देश्यों के लिए' सेवा जारी माना जाना चाहिए। साथ ही इसका प्रभाव उसकी वरिष्ठता एवं पेंशन पर नहीं पड़ना चाहिए।
न्यायालय की खंडपीठ ने व्यवस्था दी कि किसी कर्मचारी की दोबारा नियुक्ति का अर्थ है कि उस पर लगा कदाचार का आरोप प्रमाणित नहीं हुआ तथा कर्मचारी की पुनर्नियुक्ति सामान्य तौर पर की गई।
मामले के अनुसार सूरत नगर निगम का कर्मचारी योगिन कुमार शुक्ला को विभागीय कार्यवाही के बाद 21 दिसंबर, 2002 को आदेश जारी कर सेवा से हटा दिया गया था।
शुक्ला ने स्थायी समिति में मामले को चुनौती दी, जिसने फैसला दिया कि उसकी पुनर्नियुक्ति बकाया वेतन के बिना की जानी चाहिए। लेकिन पेंशन एवं वरिष्ठता के उद्देश्य से उसकी सेवा जारी मानी जानी चाहिए।
इस फैसले से असंतुष्ट शुक्ला ने राज्य के उच्च न्यायालय की शरण ली। एकल न्यायाधीश की पीठ ने मामला विलंब से आने के कारण उसकी याचिका खारिज कर दी थी।
उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने एकल न्यायाधीश के आदेश पर हालांकि कहा कि संविधान की धारा 226 के तहत याचिका तीन वर्षों के भीतर दायर की गई है, इसलिए इसे विलंब से आया मामला नहीं कहा जा सकता।
न्यायाधीश ए.एल. दवे एवं न्यायाधीश एस.आर. बह्मभट्ट की खंडपीठ ने कहा, ''एक बार जब कर्मचारी की दोबारा नियुक्ति का निर्णय ले लिया गया तो इसका अर्थ है कि उस पर लगा कदाचार का आरोप प्रमाणित नहीं हुआ तथा कर्मचारी की पुनर्नियुक्ति सामान्य तौर पर की गई।''
न्यायालय की खंडपीठ ने व्यवस्था दी कि किसी कर्मचारी की दोबारा नियुक्ति का अर्थ है कि उस पर लगा कदाचार का आरोप प्रमाणित नहीं हुआ तथा कर्मचारी की पुनर्नियुक्ति सामान्य तौर पर की गई।
मामले के अनुसार सूरत नगर निगम का कर्मचारी योगिन कुमार शुक्ला को विभागीय कार्यवाही के बाद 21 दिसंबर, 2002 को आदेश जारी कर सेवा से हटा दिया गया था।
शुक्ला ने स्थायी समिति में मामले को चुनौती दी, जिसने फैसला दिया कि उसकी पुनर्नियुक्ति बकाया वेतन के बिना की जानी चाहिए। लेकिन पेंशन एवं वरिष्ठता के उद्देश्य से उसकी सेवा जारी मानी जानी चाहिए।
इस फैसले से असंतुष्ट शुक्ला ने राज्य के उच्च न्यायालय की शरण ली। एकल न्यायाधीश की पीठ ने मामला विलंब से आने के कारण उसकी याचिका खारिज कर दी थी।
उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने एकल न्यायाधीश के आदेश पर हालांकि कहा कि संविधान की धारा 226 के तहत याचिका तीन वर्षों के भीतर दायर की गई है, इसलिए इसे विलंब से आया मामला नहीं कहा जा सकता।
न्यायाधीश ए.एल. दवे एवं न्यायाधीश एस.आर. बह्मभट्ट की खंडपीठ ने कहा, ''एक बार जब कर्मचारी की दोबारा नियुक्ति का निर्णय ले लिया गया तो इसका अर्थ है कि उस पर लगा कदाचार का आरोप प्रमाणित नहीं हुआ तथा कर्मचारी की पुनर्नियुक्ति सामान्य तौर पर की गई।''
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