पढ़ाई और जीवन में क्या अंतर है? स्कूल में आप को पाठ सिखाते हैं और फिर परीक्षा लेते हैं. जीवन में पहले परीक्षा होती है और फिर सबक सिखने को मिलता है. - टॉम बोडेट

Tuesday, October 27, 2009

सरकार की छोटे-छोटे मुकदमें में सुप्रीम कोर्ट जाने की आदत पर सुप्रीम कोर्ट की फटकार।


मुकदमों की संख्या कम करने के लिए आयोजित राष्ट्रीय विचार का सरकारों पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। वह अब भी छोटे-मोटे केसों पर भारी खर्च कर उन्हें सुप्रीम कोर्ट तक ले आती है। यही वजह है कि देश की अदालतों में लंबित तीन करोड़ मुकदमों में से 30 फीसदी हिस्सा सरकारों का है। लेकिन मुख्य न्यायाधीश ने इस पर काम करना शुरू कर दिया है।

सोमवार को एक मामले में उन्होंने एक चौकीदार को स्थायी करने के आदेश को चुनौती देने पर मध्य प्रदेश सरकार को खूब फटकार लगाई और अपील खारिज कर दी। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस केजी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि सरकार बिना वहज की अपीलें करके कोर्ट का ही समय नष्ट नहीं करती बल्कि जनता का पैसा भी व्यर्थ ही बहाती हैं। उन्होंने कहा, ‘समय आ गया है कि ऐसे मुकदमों को हतोत्साहित किया जाए। हम ऐसे मुकदमों पर बिल्कुल सुनवाई नहीं करेंगे जिसमें सिर्फ एक व्यक्ति शामिल हो।

सरकार को कम से कम ऐसे केसों में अपीलें नही करनी चाहिए। यह एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी (गरीब चौकीदार) को स्थायी करने का मामला है। वह 1991 से काम कर रहा है। उसे स्थायी न कर सरकार उसके मानवाधिकार का उल्लंघन भी कर रही है। क्योंकि वह सुप्रीम कोर्ट के स्तर तक अपने केस की पैरवी नहीं कर सकता है। यदि इस मामले में बड़ी संख्या में कर्मचारी शामिल होते तो बात समझ में आती लेकिन एक व्यक्ति के लिए सरकार सुप्रीम कोर्ट तक आ जाए यह गलत है।’ यह कह कर सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश सरकार की एक चौकीदार को स्थायी करने के आदेश के खिलाफ की अपील खारिज कर दी।

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