पढ़ाई और जीवन में क्या अंतर है? स्कूल में आप को पाठ सिखाते हैं और फिर परीक्षा लेते हैं. जीवन में पहले परीक्षा होती है और फिर सबक सिखने को मिलता है. - टॉम बोडेट

Tuesday, April 6, 2010

सरकार अभियोजन की मंजूरी देने से इनकार नहीं कर सकती

मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक अहम फैसला दिया है कि सरकार अभियोजन की मंजूरी देने से इनकार नहीं कर सकती। यह फैसला सरकारी विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार को कम करने में बड़ा मददगार साबित हो सकता है। भ्रष्टाचार या किसी भी तरह के अन्य अपराध को रोकने के लिए अन्य तरीकों के साथ ही यह भी अत्यधिक आवश्यक होता है कि इसमें लिप्त व्यक्ति को उसके किए की सजा मिले और व्यक्ति को दंड मिले। इसके लिए जरूरी है कि मामला न्यायालय में पहुंचे, लेकिन मौजूदा व्यवस्था में यह सामान्य-सा है कि अनेक मामले सिर्फ इसलिए न्यायालय की दहलीज तक ही नहीं पहुंच पाते है कि संबद्ध सरकारें अपने कर्मचारियों-अधिकारियों के खिलाफ अभियोजन की अनुमति ही नहीं देती है। इससे एक ओर भ्रष्ट कर्मचारी-अधिकारियों का हौसला बढ़ता है, वहीं न्याय की आस करने वाले ईमानदार व्यक्तियों व प्रवर्तन एजेंसियों का विश्वास डिगता है।

पूरी स्थिति जो मकड़ी के मजबूत जाले से फैल चुके भ्रष्टाचार को और पोषित करने का काम करती है। प्रवर्तन एजेंसियां कानूनी एजेंसियां है। उन्हें किसी कर्मचारी-अधिकारी की धरपकड़, उसके खिलाफ मामला दर्ज करने का अधिकार इसी नाते हैं कि वे कानून से भलीभांति वाकिफ होती है व इसकी ऊंच-नीच को अच्छी तरह समझती हैं। वे भी किसी के खिलाफ अभियोजन चलाने का निर्णय करने से पहले मामले को हर तरह से परखती है और इसके बाद भी उनके निर्णय में कोई कमी होती है तो न्यायालय उनकी राह में होते है।

वे मामले को अभियोजन योग्य न मानकर उसे खारिज कर देते है। न्यायालय से पहले सरकार के स्तर पर अभियोजन के बारे में निर्णय करना इसलिए गैर जरूरी भी है कि न्यायालय के स्तर पर तो फैसला होगा ही। तब सरकार के पास मामले को रखकर इसके निर्णय तक पहुंचने की समयावधि को क्यों बढ़ाया जाए? साथ ही यह भी कि न्यायालय के स्तर पर निर्णय विशुद्ध परिस्थितियों व साक्ष्य के आधार पर होता है, जबकि सरकार के स्तर पर कई तरह के दबाव की आशंका निरंतर बनी रहती है। चूंकि संदर्भित फैसला मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने दिया है, इसलिए राज्य के हालात का जिक्र करना अप्रासंगिक न होगा। प्रदेश में लोकायुक्त, राज्य आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो और अन्य एजेंसियों से जुड़े न सिर्फ ऎसे उदाहरण विद्यमान है, जिनमें राज्य सरकार ने अभियोजन चलाने की अनुमति नहीं दी है, बल्कि ऎसे भी मामले है, जिन अनुमति का निर्णय करने में ही सालों लगा दिए गए और अब भी ऎसे कई प्रकरण सरकार के पास अभियोजन की अनुशंसा के लिए लंबित पड़े है। यह पहलू इस दृष्टि से गंभीर है कि इस संबंध में अपनी अदालतें पहले ही व्यवस्था दे चुकी है। उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 1997 और वर्ष 2005 में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने ही व्यवस्था दी कि अनुशंसा के लिए मामला आने के बाद अधिकतम तीन (आपात परिस्थितियों में चार) माह में सरकार को फैसला करना जरूरी है। साफ तौर पर प्रदेश में इसका पूरी तरह से पालन नहीं हो रहा है। राज्य सरकार को इसे गंभीरता से लेना चाहिए, क्योंकि न्याय व इसके प्रति विश्वास बनाए रखने के लिए न्यायिक क्षेत्र के फैसलों को सही रूप व समय सीमा में लागू करवाना जरूरी है।

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