उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि कोई भी अदालत पति- पत्नी की आपसी रजामंदी के बावजूद हिन्दु विवाह अधिनियम की 13 बी धारा के अंतर्गत विवाह बंधन को तब तक खत्म नहीं कर सकती जब तक कि वे दोनों व्यक्तिगत रूप से अदालत में हाजिर होकर तलाक नहीं मांगे. मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णनन, न्यायमूर्ति पी सदाशिवम और न्यायामूर्ति अशोक कुमार गांगुली की पीठ ने स्मृति पहाड़िया नाम की एक महिला की ओर से दाखिल याचिका की सुनवाई करते हुए यह बात कही. श्रीमती पहाड़िया ने याचिका में बम्बई उच्च न्यायालय के पांच जून 2008 के बम्बई की एक परिवार अदालत के फ़ैसले को खारिज करने के आदेश को चुनौती दी थी. परिवार अदालत ने इस मामले में पांच दिसंबर 2007 को श्रीमती पहाड़िया और उनके पति के बीच तलाक होने का फ़ैसला सुना दिया था. हालांकि उस समय ये दोनों अदालत में हाजिर नहीं थे. बाद में बम्बई उच्च न्यायालय ने इस फ़ैसले को खारिज कर दिया था. उक्त मामले में 31 पृष्ठों के फ़ैसले में पीठ की ओर से न्यायामूर्ति गांगुली ने कहा कि हिन्दु विवाह अधिनियम की धारा 13 बी के तहत अदालत पति- पत्नी के बीच आपसी रजामंदी के आधार पर उन्हें अलग रहने की अनुमति देने में सक्षम है, लेकिन इसके लिए उन्हें व्यक्तिगत तौर पर यह रजामंदी दिखानी होगी. उन्होंने कहा कि अदालत को इस रजामंदी के प्रति संतुष्ट किया जाना जरूरी है. यदि एक भी पक्ष अदालत में हाजिर नहीं होता है, तो तलाक देना अदालत के दायरे में नहीं आता. श्रीमती पहाड़िया की शादी पांच मार्च 1993 को संजय नाम के व्यक्ति से हुयी थी. वर्ष 2005 में इन दोनों ने आपसी रजामंदी से तलाक लेने के लिए अर्जी दी थी. उच्चतम न्यायालय ने परिवार अदालत से कहा है कि वह दोनों पक्षों को नोटिस जारी कर व्यक्तिगत रूप से तलाक के लिए उनकी सहमति ले.
Saturday, June 20, 2009
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