सेना में महिला अफसरों के साथ हो रहे भेदभाव पर आज दिल्ली हाईकोर्ट एक अहम फैसला सुना सकती है। इस मामले में तीनों सेनाओं की 30 महिला अफसरों ने याचिका दायर कर मांग की है कि सेना के उस नियम को बदला जाए जिसके मुताबिक उन्हें 14 साल की सर्विस के बाद रिटायर कर दिया जाता है।
तीनों सेनाओं की करीब ढाई हजार महिला अधिकारियों को आज दिल्ली हाई कोर्ट में होने वाली सुनवाई का इंतजार है। जहां सरकार को यह बताना है कि तीन सेवा विस्तार और 14 साल की सेवा के बावजूद महिला अधिकारियों को सेना क्यों न तो स्थायी कमीशन दे रही है और न ही सेवानिवृत्ति का लाभ।
तीन साल से कोर्ट में चल रहे मामले की सुनवाई के दौरान सरकार कभी अमरीका सेना के मॉडल का हवाला देती है तो कभी महिला अधिकारियों के कम प्रशिक्षण का। महिलाओं को स्थायी कमीशन न देने के पीछे सरकार यहां तक कहती है कि युद्ध बंदी बनाए जाने की सूरत में महिलाओं की मुसीबत बढ़ सकती है।
1992 में सेना में महिलाओं की भागीदारी के लिए अल्प सेवा कमीशन शुरू किया गया। शुरुआती पांच साल की सेवाओं के बाद इन अधिकारियों को पहले पांच साल और बाद में चार साल का सेवा विस्तार दिया गया। लेकिन अब इन महिला अफसरों को रक्षा मंत्रालय 14 साल की सेवा के बाद सेना से चलता कर रहा है। वहीं फौज में अपनी जिंदगी के कीमती साल देने वाली महिलाओं के लिए न तो पेंशन है न मेडिकल सुविधाएं और न ही पूर्व सैनिक का दर्जा।
वहीं दो फीसदी विधवा कोटे से सेना में शामिल हुई महिला अधिकारियों की मुसीबत दोहरी है। अधेड़ उम्र की बेरोजगारी से निपटने के लिए सहारा कुछ भी नहीं है।
महिलाओं के लिए भारतीय सेना में न तो सेवा शर्तों में कोई छूट है न ही सेवा स्थितियों में कोई रियायत। महिला अफसरों के लिए न तो प्रमोशन का प्रावधान है और न ही वह मेजर रैंक तक पहुंच सकती हैं।
खास बात यह है कि सेना में अफसरों के 24 हजार से ज्यादा पद खाली हैं।
रक्षा मंत्रालय की नाकाम नीतियों का ही नतीजा है कि अल्प सेवा कमीशन की महिला अधिकारी सेना छोड़ने को मजबूर हैं।
तीनों सेनाओं की करीब ढाई हजार महिला अधिकारियों को आज दिल्ली हाई कोर्ट में होने वाली सुनवाई का इंतजार है। जहां सरकार को यह बताना है कि तीन सेवा विस्तार और 14 साल की सेवा के बावजूद महिला अधिकारियों को सेना क्यों न तो स्थायी कमीशन दे रही है और न ही सेवानिवृत्ति का लाभ।
तीन साल से कोर्ट में चल रहे मामले की सुनवाई के दौरान सरकार कभी अमरीका सेना के मॉडल का हवाला देती है तो कभी महिला अधिकारियों के कम प्रशिक्षण का। महिलाओं को स्थायी कमीशन न देने के पीछे सरकार यहां तक कहती है कि युद्ध बंदी बनाए जाने की सूरत में महिलाओं की मुसीबत बढ़ सकती है।
1992 में सेना में महिलाओं की भागीदारी के लिए अल्प सेवा कमीशन शुरू किया गया। शुरुआती पांच साल की सेवाओं के बाद इन अधिकारियों को पहले पांच साल और बाद में चार साल का सेवा विस्तार दिया गया। लेकिन अब इन महिला अफसरों को रक्षा मंत्रालय 14 साल की सेवा के बाद सेना से चलता कर रहा है। वहीं फौज में अपनी जिंदगी के कीमती साल देने वाली महिलाओं के लिए न तो पेंशन है न मेडिकल सुविधाएं और न ही पूर्व सैनिक का दर्जा।
वहीं दो फीसदी विधवा कोटे से सेना में शामिल हुई महिला अधिकारियों की मुसीबत दोहरी है। अधेड़ उम्र की बेरोजगारी से निपटने के लिए सहारा कुछ भी नहीं है।
महिलाओं के लिए भारतीय सेना में न तो सेवा शर्तों में कोई छूट है न ही सेवा स्थितियों में कोई रियायत। महिला अफसरों के लिए न तो प्रमोशन का प्रावधान है और न ही वह मेजर रैंक तक पहुंच सकती हैं।
खास बात यह है कि सेना में अफसरों के 24 हजार से ज्यादा पद खाली हैं।
रक्षा मंत्रालय की नाकाम नीतियों का ही नतीजा है कि अल्प सेवा कमीशन की महिला अधिकारी सेना छोड़ने को मजबूर हैं।
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