सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच ने बुधवार को इस विवादास्पद मुद्दे की सुनवाई शुरू कर दी, जिसमें यह सवाल उठाया गया है कि क्या केंद्र में सत्ता परिवर्तन के साथ राज्यपालों को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले हटाना उचित है। चीफ जस्टिस केजी बालकृष्णन की अगुवाई वाली पांच जजों की बेंच ने सुनवाई शुरू करने से पहले कहा, ‘यह सवाल साधारण है, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। इसका कई अन्य संवैधानिक पदों पर असर पड़ता है।’
निरंकुशता नहीं : बहस की शुरुआत करते हुए पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी ने कहा कि राज्यपालों को हटाने के मामले में केंद्र सरकार निरंकुशता नहीं बरत सकती। उन्होंने बेंच से कहा कि राज्यपालों को उनका कार्यकाल पूरा करने देने की संरक्षित व्यवस्था होनी चाहिए।
कार्यकाल पूरा करने दें : सोराबजी ने कहा कि इस मामले में केंद्र अपनी मर्जी से कदम नहीं उठा सकता। उसे राज्यपालों को अपना पांच वर्षीय कार्यकाल पूरा करने का मौका देना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि वे यह बात मामले के गुण-दोषों के आधार पर नहीं, बल्कि राज्यपाल पद के संवैधानिक पक्ष को स्पष्ट करने के लिए कह रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट में यह मुद्दा 2004 से लंबित है, जब तत्कालीन भाजपा सांसद बीपी सिंघल ने उत्तरप्रदेश, गुजरात, हरियाणा और उड़ीसा के राज्यपालों को हटाए जाने को चुनौती देते हुए याचिका दायर की थी। उस समय की यूपीए सरकार ने इन राज्यपालों को हटाया था। इसमें कहा गया था कि केंद्र की सलाह पर राष्ट्रपति राज्यपाल को संविधान के मुताबिक उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले हटा नहीं सकते। सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच ने बुधवार को उस सवाल पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया, जिसमें यह पूछा गया था कि साल के शुरुआती संसद सत्र को क्या उसका पहला सत्र माना जाए। आरपीआई (आठवले धड़ा) के नेता रामदास आठवले ने इस संबंध में याचिका दायर की थी। इसमें उन्होंने पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के उस फैसले को चुनौती दी है, जिसमें उन्होंने जनवरी 2004 के संसद सत्र को शीतकालीन सत्र का ही हिस्सा माना था, जबकि शीतकालीन सत्र 23 दिसंबर 2003 को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया था। आठवले का कहना है कि एक बार स्थगित हो जाने के बाद नए साल में संसद सत्र को निरंतर नहीं माना जा सकता। चीफ जस्टिस केजी बालकृष्णन की अगुवाई वाली पांच सदस्यीय बेंच ने बुधवार को इस मसले पर आधे घंटे से कुछ अधिक समय की बहस के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया।
निरंकुशता नहीं : बहस की शुरुआत करते हुए पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी ने कहा कि राज्यपालों को हटाने के मामले में केंद्र सरकार निरंकुशता नहीं बरत सकती। उन्होंने बेंच से कहा कि राज्यपालों को उनका कार्यकाल पूरा करने देने की संरक्षित व्यवस्था होनी चाहिए।
कार्यकाल पूरा करने दें : सोराबजी ने कहा कि इस मामले में केंद्र अपनी मर्जी से कदम नहीं उठा सकता। उसे राज्यपालों को अपना पांच वर्षीय कार्यकाल पूरा करने का मौका देना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि वे यह बात मामले के गुण-दोषों के आधार पर नहीं, बल्कि राज्यपाल पद के संवैधानिक पक्ष को स्पष्ट करने के लिए कह रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट में यह मुद्दा 2004 से लंबित है, जब तत्कालीन भाजपा सांसद बीपी सिंघल ने उत्तरप्रदेश, गुजरात, हरियाणा और उड़ीसा के राज्यपालों को हटाए जाने को चुनौती देते हुए याचिका दायर की थी। उस समय की यूपीए सरकार ने इन राज्यपालों को हटाया था। इसमें कहा गया था कि केंद्र की सलाह पर राष्ट्रपति राज्यपाल को संविधान के मुताबिक उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले हटा नहीं सकते। सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच ने बुधवार को उस सवाल पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया, जिसमें यह पूछा गया था कि साल के शुरुआती संसद सत्र को क्या उसका पहला सत्र माना जाए। आरपीआई (आठवले धड़ा) के नेता रामदास आठवले ने इस संबंध में याचिका दायर की थी। इसमें उन्होंने पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के उस फैसले को चुनौती दी है, जिसमें उन्होंने जनवरी 2004 के संसद सत्र को शीतकालीन सत्र का ही हिस्सा माना था, जबकि शीतकालीन सत्र 23 दिसंबर 2003 को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया था। आठवले का कहना है कि एक बार स्थगित हो जाने के बाद नए साल में संसद सत्र को निरंतर नहीं माना जा सकता। चीफ जस्टिस केजी बालकृष्णन की अगुवाई वाली पांच सदस्यीय बेंच ने बुधवार को इस मसले पर आधे घंटे से कुछ अधिक समय की बहस के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया।
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